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चादर ओढ़ शंका मत करियो दो दिन तमको दीन्ही। मूरख लोग भेद नहीं जाने दिन-दिन मैली कीन्ही, चदरिया झीनी रे झीनी । भक्त प्रहलाद, सुदामा ने ओढ़ी शकदेव ने निर्मल कीन्ही । दास कबीर ने ऐसी ओढ़ी
ज्यों की त्यों धर दीन्ही, चदरिया झीनी रे झीनी। मूर्ख लोग, मूढ़ लोग नहीं जानते कि काया की यह जो चदरिया है, यह परमात्मा ने क्यों दी है ? क्यों यह सौगात हमें समर्पित की है ? इस चदरिया को तो और भी कई लोगों ने ओढ़ा है । प्रहलाद ने, ध्रुव ने, शकदेव ने, मीरा ने, चैतन्य ने, महावीर, बुद्ध और न जाने कितने-कितने पुण्य-पुरुषों ने इसे धारण किया है, लेकिन उनकी महानता यही थी कि उन्होंने काया को पाया, निर्लेप भाव से जीया और काया को छोड़कर मुक्त हो गये । मूर्ख आदमी ने काया को लिया और उसे ही जीया और मर गया। . यह काया तो सौभाग्य की बात है, अहोभाग्य है । इस काया को हेय मत समझो, तुच्छ और नगण्य मत समझो । काया को अगर अपनी समझ ली, तो यह काया तुम्हारे लिये पाप है । अगर इस काया को परमात्मा का प्रसाद समझ लिया, तो यह काया आपको बहुत बड़ा अवदान है, पुण्य है, महान् कृत्य है । 'यह तन रब सच्चे का हुजरा।' यह काया तो सत्य का साधना-कक्ष है।
गीता का आज का अध्याय है-क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग । एक ओर कृष्ण कहते हैं क्षेत्र और दूसरी ओर क्षेत्रज्ञ । सूत्र कहता है -
इदं शरीरं कौन्तेय क्षेत्रमित्यभिधीयते । एतद्यो वेत्ति तं प्राहुः क्षेत्रज्ञ इति तद्विदः ।। यथा सर्वगतं सौम्यादाकाशं नोपलिप्यते।
सर्वत्रावस्थितो देहे तथात्मा नोपलिप्यते ॥ कृष्ण कहते हैं-वत्स, यह शरीर क्षेत्र है । जो इसे जानता है, जो इसमें रहता है, ज्ञानीजन उसे क्षेत्रज्ञ कहते हैं । जिस प्रकार सर्वत्र व्याप्त आकाश सूक्ष्म होने के
हों निर्लिप्त,ज्यों आकाश | 155
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