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________________ प्रभुता उस आदमी की दासी हो जाती है, जो प्रभु के लिए अपने आपको समर्पित कर देता है । चूंकि चंद्रप्रभ बोल रहा है, तो आप यह न सोचें कि यह कोई चन्द्रप्रभ बोल रहा है । यह तो केवल वह भगवत स्वरूप ही यहां आकर बोलता है। चंद्रप्रभ का तो केवल उस प्रभु को निमंत्रण होता है । मैं तो कहता हूँ प्रभु, मैं तो वैसा ही निमित्त हूं, जैसा एक निमित्त तुम्हारे लिये अर्जुन था । आओ और अपनी बांसुरी की तान छेड़ो, अपनी गीता को सुनाओ । प्रभु, तुम्हें अगर किसी को चैतन्य बनाना है तो बनाओ, किसी को राधा बनाना है, तो बनाओ, तुम्हारी 1 मौ। मैं तो अनासक्त भाव से सारे प्राणियों के प्रति एक निर्मल मैत्री का भाव लेकर अपनी ओर से सारे कर्तव्य कर्मों को तुम्हें समर्पित करते हुए अनन्य भक्तिचित्त से, अनन्य प्रेमयुक्त चित्त से तुम्हें समर्पित हूँ । हमें कैसे जीवित रखना है, कैसे हमारा उपयोग करना है, यह सब तुम्हारे हाथों में है। हम तो सागर में बहते हुए तिनके की तरह तुम्हें समर्पित हो चुके हैं। अब इस तिनके को तुम किस तरफ़ बहा ले जाते हो, यह तुम पर है। हमने तो अपने जीवन के लंगरों को खोल दिया है, अब यह तुम्हारी हवा हमें कहाँ ले जाती है, तू ही जाने । हम तो बस तुम्हारे चरणों में समर्पित हुए फूल हैं । तुम्हारे दरिया में समर्पित हुए फूल हैं । हमें तो इतना दृढ़ विश्वास है, इतनी परम श्रद्धा है कि जहाँ तू हमें ले जाकर पहुँचाएगा, वहाँ हम नहीं होंगे, वरन् तुम्हीं होगे, तुम्हीं वहां पर ब्रह्म-विहार करने वाले मुक्त परम स्वरूप परमात्मा होगे । यही निवेदन है प्रभु कि हृदय-नेत्रों से बहने वाली अश्रुओं की धार को स्वीकारो । हमारे पांडित्य, हमारी विद्वता को एक किनारे फेंको। हम तो अब तुम में रमते हैं, तुम हम में रम जाओ । हम तुम्हारा सुमिरन करेंगे, तुम हमारा सुमिरन रखो । हम तुम्हारा ध्यान धरते हैं, तुम हमारा ध्यान रखो । हमारी वृत्तियां तुम्हारी ओर बढ़ती जाएं। हमारा अहं तुम में विलय हो जाए। तुम्हारी परम चेतना में, तुम्हारी परम शांति में, परम प्रेम में, परम स्वरूप में मन की वृत्तियां शान्त हो जायें । शरीर को चिता की आग सुलगाये, उससे पहले तू अपनी ज्ञानाग्नि से हमारी आसक्तियाँ जला दे । तू हमें अपने स्वभाव, में अपने स्वरूप में समाविष्ट कर ले । ले चलो प्रभु हमें प्रेम के प्रकाश की ओर, ज्ञान के आलोक की ओर । आप सबके अन्तर्घट में विराजमान परमपिता परमात्मा को नमस्कार । Jain Education International For Personal & Private Use Only समर्पण ही चाहिए | 137 www.jainelibrary.org
SR No.003890
Book TitleJago Mere Parth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2002
Total Pages234
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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