SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 144
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ घड़ी के करीब पहुँचते-पहुँचते उसने जान ही लिया कि वह रटंत विद्या, यह तोता-रटंत आदमी को मृत्यु से नहीं बचा सकती। मनुष्य का अगर अन्तिम शरणभूत होता है, तो वह भज गोविंदम्' ही है । लोग भजगोविंदम्' नहीं भजते । वे तो भजते हैं-भजकलदारम् ! भजकलदारम् ! आदमी के लिए पहला भगवान पैसा हो चुका है। न बीवी, न बच्चा, न बाप बड़ा, न भैया। द आल थिंग इज दैट सबसे बड़ा रुपैया॥ परमात्मा को किसी ने पाया, तो योग से ही पाया होगा, ध्यान, स्वाध्याय, ज्ञान, सेवा से ही पाया होगा, लेकिन कृष्ण तो साफ़-साफ़ कह देते हैं कि मैं तो उनके लिए है, जो मुझे प्रेम से भजते हैं; जो मझे अनन्य भक्ति चित्त होकर मेरे लिए ही सारे कर्तव्य-कर्मों को समर्पित करते हैं; आसक्ति-रहित होकर सर्व प्राणियों के प्रति निर्वैर होकर जीते हैं, वे मुझे प्राप्त करते हैं । परमात्मा को खोजने के दो ही उपाय, दो ही मार्ग हैं। पहला मार्ग तो यह कि व्यक्ति अपने आपको मिटा डाले, समर्पित कर डाले । उसका समर्पण पानी में घुले नमक-सा होना चाहिये कि नमक का कोई स्वतंत्र अस्तित्व शेष न रहे। भगवत्-प्राप्ति का दूसरा उपाय यह बचता है कि कोई समर्पण नहीं, हम आत्म-संकल्प के जरिये पहुँचेंगे। जैसे एक दीपक की लौ अखंड सुलगती रहती है, ऐसे ही हम भी प्रज्वलित रहेंगे। या तो परम जागरूकता ही मार्ग बनेगी या परम समर्पण ही मार्ग होगा। अगर गंगोत्री तक पहुँचोगे तो भी गंगोत्री के द्वारा वापस गंगासागर मिल जायेगा और गंगासागर तक पहुँचोगे, तो भी गंगोत्री तक पहुँच जाओगे। यह 'जल-चक्र' की प्रक्रिया है । सागर का पानी सूखेगा, बादल बनेगा, फिर बरसेगा और गंगोत्री तक पहुँच जायेगा । गंगोत्री से बहेगा और वापस गंगा का रूप लेते-लेते गंगासागर तक पहुँच जायेगा। मार्ग दोनों ही हैं, दोनों ही मार्गों से पहुंचा जा सकता है, इसलिए कृष्ण ने ज्ञानयोग भी दिया और कर्मयोग भी बताया। जो मार्ग सुगम हो, उसी से पहुँच जाओ, जिसके लिए तुम्हारी आत्मा मान पड़े, वही मार्ग ठीक। ___ परमात्मा को उपलब्ध करने का दूसरा मार्ग किसी राधा का, किसी मीरा का, किसी परमहंस का, किसी नारद का मार्ग है । यह बेहोशी का, मिटने का ही मार्ग है । हमें होश नहीं चाहिये प्रभु, हमें तुम्हारी बेहोशी चाहिये । तू तो ऐसी कृपा कर कि हर वक्त तुम्हारे चरणों में हमारा जीवन समर्पित बना हुआ रहे । यहाँ समर्पण ही चाहिए। 135 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003890
Book TitleJago Mere Parth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2002
Total Pages234
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy