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भगवान ने जब कहा कि मेरा यह स्वरूप कोई नहीं देख सकता, फिर भी मेरा कोई-न-कोई रूप देखने को मिल ही जायेगा, तो पूछा गया कि प्रभु, वह स्वरूप कैसे देखने को मिलेगा? समाधान-स्वरूप गीता के इस ग्यारहवें अध्याय के अंतिम चरणों में कृष्ण कहते हैं -
नाहं वैदैर्न तपसा न दानेन न चेज्यया। शक्य एवं विधो द्रष्टुं दृष्टवानसि मां यथा । मत्कर्म-कृन्मत्परमो, मद्भक्तः संगवर्जितः।
निर्वैरः सर्वभूतेषु यः स मामेति पाण्डव ॥ हे अर्जुन ! मेरा जिस प्रकार का स्वरूप तुमने देखा है, वैसा मैं न वेदों से, न तप से, न दान से और न यज्ञ से ही देखा जा सकता हूँ । जो पुरुष मेरे लिए संपूर्ण कर्त्तव्य-कर्मों को करने वाला है, मेरे परायण है, मेरा भक्त है,आसक्ति-रहित और सर्वभूतों के प्रति निर्वैर है, वह अनन्य भक्तिचित्त पुरुष मुझको ही प्राप्त होता
है
कृष्ण बड़ी ही गहरी बात कहते हैं। पहली बात तो यही करते हैं कि जैसा रूप तुमने देखा है, वैसा रूप और किसी को देखने को नहीं मिलेगा। ऐसा मत समझना कि वेदों के अध्ययन करने से, तप-दान या यज्ञ करने से तुम मेरा संपूर्ण स्वरूप देख लोगे, संभव ही नहीं है। केवल वेद रटकर तुम वेदविद् हो सकते हो । वैदिक अध्ययन केन्द्र के अध्यक्ष वगेरे यहाँ मुझे सुन रहे हैं। पंडिताई का परमात्मा से क्या सरोकार । दान, तप, वेद, यज्ञ से वह नहीं मिलने वाला। उसे पाने के लिए तो उसी का होना होता है । उसी के परायण होना होता है । अनन्य भक्ति युक्त चित्त से वह सच्चिदानन्द आत्मसात होता है। अपने सम्पूर्ण कर्तव्य, कर्म हम उसी को, उसी के नाम समर्पित करें। परमात्मा ही परम शरण स्वरूप है। कोरे सूत्र-रटन से भगवत्ता का सान्निध्य नहीं मिलता। शंकर कहते हैं -
भज गोविंदम् भज गोविन्दम् भज गोविंदम् मूढ़मते। सम्प्राप्ते सन्निहिते काले,
नहि नहि रक्षति डुळूकरणे ॥ क्या तु व्याकरण-सूत्र को रटने में ही जिंदगी परी कर रहा है? यह बात वह पुरुष कह रहा है, जिसने सूत्रों को अपना जीवन न्यौछावर किया, लेकिन अंत
134 | जागो मेरे पार्थ
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