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अर्जुन न तो मन्दिरों में गया, न महावीर की तरह जंगलों में गया, न बुद्ध की तरह किसी बोधि-वृक्ष के नीचे जाकर तपोरत बैठा। घटना अकारण और आकस्मिक ही घटती है, घटाने से नहीं घटती । उस दिव्यत्व के दर्शन पाकर अर्जुन को कहना ही पड़ा कि प्रभु, कृतपुण्य हुआ आज मैं । आज मैंने जान ही लिया कि आप परमधाम हैं । आप ही देवेश हैं, आप ही ब्रह्माण्ड हैं । आपसे ही सब कुछ है, बगैर आपके कुछ भी नहीं । आपका पुण्य-दर्शन मेरा सौभाग्य । भगवद्-दर्शन ही भक्त का सौभाग्य है।
मैंने सुना है कि जब भगवान बुद्ध का जन्म हुआ तो राजा शुद्धोधन के दरबार में जन्म-महोत्सव की भव्य तैयारियां शुरू हुईं । शिशु ने धरती पर कदम रखा ही था कि शुद्धोधन ने देखा कि असिता ऋषि ठेठ हिमालय से चलकर उनके दरबार में पहँचे हैं। वे ऋषि, जिनका दर्शन करने के लिए बड़े-बड़े सम्राट और मुनिगण तरसते हैं, वे ठेठ हिमालय से चलकर आज दरबार में आये थे । शुद्धोधन खड़े हुए और ब्रह्मर्षि के स्वागत के लिए आगे बढ़े। उनका स्वागत कर राजा ने पूछा-प्रभु, आप और यहाँ ? कृपया आपके आने का अर्थ बताइये । ऋषि ने कहा-शुद्धोधन, मेरी दिव्य दृष्टि ने आज एक अनोखी घटना होते हुए देखी है । वह घटना यह है कि तुम्हारे घर में जिस बालक का जन्म हुआ है, वह बालक एक अवतार है । मैं उसी परमात्मा का साकार रूप देखने यहाँ तक आया हूँ। तुम इतना-सा अनुग्रह करो कि बालक को यहाँ ले आओ। तब सिद्धार्थ को वहाँ लाया गया। ऋषि ने हाथ जोड़कर कहा-हे प्रभु, अगर यह शरीर कुछ और बना हुआ रहता, तो निश्चित तौर पर मैं आपके विराट होते हुए स्वरूप को देखकर धन्यभाग होता, किन्तु मेरे निर्वाण का समय बहुत नज़दीक आ चुका है । कहते हैं कि तब भगवान बुद्ध के उस शिशु रूप ने अपने अंगूठे का स्पर्श असिता ऋषि की जटा से किया । वे धन्यभाग हो उठे । उन्होंने कहा-भगवान, जीवन की सारी तपस्या सार्थक हो गई कि मरने से पहले स्वयं परमपिता परमेश्वर के चरण का स्पर्श प्राप्त हुआ।
जिस एक आंशिक स्वरूप का दर्शन पाने के लिए असिता ऋषि हिमालय से आये, जिस एक अंगूठे का स्पर्श पाकर वे धन्यभाग हो गये, ज़रा कल्पना करो कि वे आँखें कितनी धन्यभाग होंगी कि जिससे परमात्मा के विराट स्वरूप का, विश्व-रूप का दर्शन किया।
132 | जागो मेरे पार्थ
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