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मेरी समझ से तो प्रभु के स्मरण का अर्थ यही है कि जीओ, बोधपूर्वक जीयो, अपने में प्रभु की मूरत मानो । तुम जिन-जिन के साथ मिल रहे हो, बैठ रहे हो, उन सब में प्रभु की मूरत मानकर उनके साथ वैसा ही व्यवहार करो। भगवान चाहे महावीर के रूप में हों, बद्ध के रूप में हों या राम-रहीम, कृष्ण-करीम के रूप में हों उनको तो जीया जाता है। अपने जीवन में या औरों के जीवन में, सबके जीवन के साथ उनको जीना ही प्रभु का सही स्मरण है। भगवान की चदरिया ओढ़ लेने भर से भगवान मिलने वाले नहीं हैं । अगर ऐसे ही भगवान मिल जाते, तो गंगा में रहने वाली मछलियां पावन क्यों नहीं हो जातीं।
बाह्य परिवर्तन कर लेने भर से कोई भगवान नहीं बन जाता। इस गीता-भवन के संस्थापक जिज्ञासु जी ने मुझ से कहा कि गीता-भवन के निर्माण के बाद मैं संन्यास लेने को आतुर हुआ। जिज्ञासु जी अपने गुरु के पास गये और कहा कि मुझे संन्यास लेना है । गुरु ने दीक्षा देनी चाही, गंगा के तट पर उन्हें ले जाया गया। संन्यास देने से पहले एक नियम है कि अगर जैन है, तो कहते हैं कि मैंने अपने परिवार को भुलाया, मैं परिवार-भाव से मुक्त हुआ और अगर हिन्दू है तो कहेगा-मैंने अपने परिवार को गंगा में डुबोया। जिज्ञासु ने मुझ से कहा कि तब उसके सामने असमंजस की स्थिति आ गई। तब उन्होंने अपने गुरु से कहा कि आप कहते हैं, तो मैं वाणी से कह देता हूँ कि मैंने परिवार को डुबोया यानी परिवार-भाव से मुक्त हुआ, पर मन से कहला पाने में वक्त लगेगा। केवल गंगा में डुबकी लगा लेने भर से परिवार छूटता नहीं है । जिज्ञासु जी कहते हैं कि संन्यास को इतने वर्ष हो गये, फिर भी लगता है कि परिवार तो मन में बसा हुआ है । केवल बाह्य परिवर्तन परमात्मा के मार्ग को, जीवन के मार्ग को प्रशस्त नहीं कर सकते । इसीलिए तो कबीर को कहना पड़ा-'मन न रंगाये, रंगाये जोगी कपड़ा।'
हमने केवल बाहर-बाहर और ऊपर-ऊपर ही बदलाव किये हैं, भीतर में कोई सुधार, कोई तब्दीली जगह न ले पाई । हमने सितार को तो बदला है, पर उन अंगुलियों को बदलने का प्रयास नहीं किया, जिन अंगुलियों से सितार के तार साधे और छेड़े जाते हैं। क्या फ़र्क पड़ता है, चाहे नल के नीचे स्नान किया या गंगोत्री में नहाये, जब तक भीतर प्रक्षालन नहीं हो पाया, जब तक अन्तर्:मन का, अन्तस्चित्त का स्नान नहीं हो पाया। जब भीतर में जल पहुँचा ही नहीं, तो कालुष्य कैसे धुल पायेगा और कैसे प्रभु-प्राप्ति हो पायेगी।
124 | जागो मेरे पार्थ
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