SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 132
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ का विस्तार तो, लेकिन भीतर का आकाश आखिर भीतर ही सीमित है। इसी काया में, इसी देह के मन्दिर में आप परमात्मा को ढूंढ सकते हैं । इसी काया में हम अपना जो भी अस्तित्व, जो भी माधुर्य, जो भी स्वरूप है, उसे निहार सकते जैसे हम हैं, वैसी ही हमारी आत्मा है । दुनिया का भगवान चाहे कैसा भी क्यों न हो, हमारा भगवान तो वैसा है जैसे हम हैं । वह हमारे साथ जीता है, रहता है। बाहर भले ही उसे ढूंढ लेना, लेकिन उससे पहले एक बार अपने आप में भी झांक लेना। हमारे सत्य की संभावना स्वयं हमारे अपने साथ है। दुनिया के साथ जीने के नाम पर बहुत जी लिये, अब अपने लिए जीने की कोशिश हो । आइंस्टीन जब मरने के करीब पहुँचा, तो डॉक्टरों ने भी जवाब दे दिया कि अब बचाया नहीं जा सकता। दोस्तों में बात फैली। एक दोस्त ने पूछा कि आइंस्टीन, तुम मर रहे हो । हमारे प्रश्न का जवाब दो कि तुम मरने के बाद अगले जन्म में क्या होना चाहोगे? आइंस्टीन मुस्कुराया, फिर उसकी आंखों से आंसू ढुलक पड़े। उसने कहा-मुझे जीवन के इस अन्तिम दिन पर थोड़ी पीड़ा हो रही है। मेरी पीड़ा यह है कि मैं वैज्ञानिक बना, और सत्यों को जाना, मगर एक सत्य से अनजान और अबूझ रह गया, जो मेरा अपना सत्य था। मैंने दुनियाभर के सत्यों का आविष्कार किया, लेकिन एक सत्य को नहीं खोज पाया, जो मेरे स्वयं का सत्य था, जिसके रहते मैं जीवित हूं। इस सत्य के विच्छिन्न होते ही मैं कब्रिस्तान मैं दफना दिया जाऊंगा, श्मशान का शिलालेख भर हो जाऊंगा। आदमी दिन-रात दौड़ता है। उसका जीवन ही दौड़ बन जाता है, जिसमें शांति का कोई स्थान नहीं है । वाणी, हाथ, पांव, इन्द्रियाँ सभी इसी दौड़ में शामिल हैं । मन भी दौड़ रहा है । पर जिसका मन शान्त है, केन्द्रित और मौन है, शुद्ध और परिपूर्ण है, वही व्यक्ति संत है, वही महर्षि है । अच्छा होगा हम अपने आप में बढ़ पाएं। अगर प्रभ-समिरन ही करना है तो इसका अर्थ यह नहीं है कि तुम दिन-रात राम-राम-राम 'गुड़गुड़ाते' जाओ, जैसे गांव के चौधरीजी का हुक्का गुड़गुड़ किया करता है। तुम अच्छा कार्य कर गये, तो भी राम और बुरा काम कर गये तो भी राम । व्यक्ति पाप के घड़े भरता जाता है और राम-नाम की रट जारी रखता है । राम-राम करने से कोई राम मिलता थोड़े' ही है । अगर तुम राम की मर्यादा को अपने में जी पाओ, तो ही इस नाम की सार्थकता है। भीतर बैठा देवता | 123 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003890
Book TitleJago Mere Parth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2002
Total Pages234
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy