________________
किसी भी मछली का जीना संभव नहीं है । बहिन, क्या तुम बता सकती हो, यह सागर कहाँ है ? सहेली ने कहा- तूने प्रश्न तो बहुत ही अच्छा किया है। मैंने भी सुन रखा है कि सागर कोई विराट चीज होती है, लेकिन मैंने भी सागर को अभी तक देखा नहीं है । दोनों मछलियाँ जिस किसी मछली से मिलती, उसी से पूछती कि सागर कहाँ है और कैसा है ? सागर की खोज के लिए सब मछलियों ने अपने लिखे सारे शास्त्र, सारे ग्रन्थ छान मारे, लेकिन उन्हें यह पता नहीं चला कि सागर क्या है ? और कहाँ है ?
मछलियाँ ढूंढ रही हैं सागर को । माना मछलियाँ अबोध हैं, इसलिए ढूंढ रही हैं, पर इंसान तो समझ रखता है। आदमी भी सोचने लगता है कि परमात्मा कहाँ है? ढूंढता रहता है आदमी । न जाने कहाँ-कहाँ ढूंढता है ? तुम यह क्यों नहीं जानते कि जिस तरह बग़ैर सागर के मछली का जीवन नहीं है उसी तरह बग़ैर परमात्मा के आदमी का अस्तित्व नहीं है । महावीर कहते हैं कि 'अप्पा सो परमप्पा' तुमसे अलग तुम्हारा परमात्मा नहीं हो सकता । परमात्मा तुम्हीं में है । तुम सब में हो, सब तुम में है। मैं सब में हूं, सब मुझ में हैं। हर कंकर को शंकर जानो ।
ओ रंभाती नदियो,
बेसुध
कहाँ भागी जा रही हो,
वंशीरव
तुम्हारे अन्दर है।
ओ कलकल नाद करने वाली सरिताओ, तुम कहां भागमभाग कर रही हो ? बांसुरी का स्वर सुनने के लिये तुम दिन-रात वृंदावन की ओर दौड़ रही हो, ज़रा सुस्ता लो और अपनी ही लहरों में सुनो तो तुम्हें अपने भीतर ही कृष्ण की बांसुरी का स्वर और संगीत सुनाई दे जायेगा। तुम अपने आप में खोज करो । तुम्हारे मन का मौन ही उन परम सुरों के सुनने का अवसर बनता है ।
परमात्मा बाहर भी है और परमात्मा भीतर भी है । भीतर उतरने के लिए, भीतर में जीने के लिए इसलिए आह्वान है, इसलिए न्यौता है, क्योंकि बाहर का कोई ओर-छोर नहीं है, बाहर के क्षितिजों का कोई अन्त नहीं है । अनंत है बाहर
122 | जागो मेरे पार्थ
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org