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________________ तौर पर समझने वाला हुआ तो मेरी दृष्टि में वे भीष्म पितामह थे । शायद अर्जुन भी कृष्ण का विराट स्वरूप देखकर इतना श्रद्धान्वित नहीं हुआ होगा, जितना श्रद्धा का भाव भीष्म पितामह के भीतर उमड़ा। जैसे ही कृष्ण ने भीष्म पितामह को मारने के लिए अपने रथ को आगे बढ़ाया, भीष्म अपने सारे शस्त्रों को समेटकर करबद्ध खड़े हो गये। उन्होनें अपने को धन्य माना कि स्वयं परमपिता परमात्मा आ रहे हैं मेरे आत्म-वैभव को स्वीकारने के लिए. नश्वर शरीर से मक्त कर देने के लिए। तब अर्जुन ने आकर कहा कि भगवान, यह आप क्या कर रहे हैं? आपने तो प्रतिज्ञा ली थी कि आप कोई शस्त्र नहीं उठायेगें, फिर ये चक्र से भीष्म पितामह पर प्रहार क्यों ? मैं ही उनसे युद्ध करूंगा। भीष्म पितामह की आंखों से आंसू ढुलक पड़ते हैं । वे अर्जुन से कहते हैं कि अर्जुन यह तूने क्या किया। यह तो मेरा परम सौभाग्य होता, मेरा जीवन सार्थक हो जाता यदि प्रभु स्वयं मेरी काया को छिन्न-भिन्नकर आत्मा को स्वीकार करते । सीमाएँ असीम में समा जातीं। ___जीवन का काव्य अनूठा होता है । यह गणित की तरह नहीं चलता कि दो और दो चार हो जाये और न ही जीवन ‘साइंस' का कोई ‘फार्मूला' है । जीवन, जीवन है । जीवन तो खुद काव्य है । जीवन तो ऐसा संगीत है कि जैसा संगीत, जैसी स्वर-लहरियाँ कृष्ण की बांसुरी से फूटा करती थीं । विडंबना है कि व्यक्ति इसे सुन नहीं पाता। उसे दूर-दूर से आती आवाजें तो सुनाई देती हैं, मगर अपने ही भीतर की पुकार सुनाई नहीं देती । आदमी जीवन की पीड़ाओं को सुख का स्त्रोत मानकर उनमें डूबा हुआ है, लेकिन ज्ञानीजन ने जिसे जीवन का सुख माना है, उसकी ओर से आंखें मूंदे हुए है। मनुष्य की यह विचित्र दशा है कि वह अपने सत्य को विस्मृत कर रहा है । वह सुखों को बाहर खोजते-खोजते, खुद को भी बाहर ही खोजने लग गया है । मनुष्य, मनुष्य से ही पूछ रहा है कि भगवान कहाँ है ! सारा ब्रह्माण्ड भगवत्ता के आभामंडल से, प्रकाश-कणों से भरा हुआ है, पर भ्रांतियाँ हजार ! ____ मैंने सुना है : एक बार सागर में तैरती हुई मछली ने दूसरी मछली से पूछा-मेरे मन में प्रश्न उठ रहा है, बड़ी जिज्ञासा जग रही है । मैंने बहुत कोशिश की, लेकिन कोई हल नहीं सूझा । सहेली ने पूछा-बोलो, तुम्हारी जिज्ञासा क्या है? ऐसा कौन-सा प्रश्न है जो तुम्हें इस कदर बेचैन किये हए है ? मछली ने कहा-मैंने सुन रखा है कि सागर बहुत विराट चीज होती है । सागर के बगैर भीतर बैठा देवता | 121 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003890
Book TitleJago Mere Parth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2002
Total Pages234
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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