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________________ काया मुरली बांस की, भीतर है आकाश । उतरें अन्तर-शून्य में, थिरके उर में रास ॥ भीतर उतरो, तो रास हो । शरीर तो बांसुरी है, भीतर भी बाहर जैसा ही आकाश है। भीतर उतरो, भीतर के आकाश में होठों से प्राण-वायु प्रसृत हो जाने दो, स्वर सध जायें, तो बांस की बनी बांसुरी, माटी की बनी काया, सप्त सुरों को जन्म दे सकती है, जीवन को संगीत से भर सकती है। जीवन स्वयं एक महाकाव्य, एक महारस, एक महासागर, एक कल्पवृक्ष और कामधेनु साबित हो सकता है। गीता का सूत्र है 'अहमात्मा गुडाकेश, सर्वभूताशयस्थितः । अहमादिश्च मध्यं च, भूतानामन्त एव च ।। कृष्ण कहते हैं-मैं सब भूतों के हृदय में स्थित सबकी आत्मा हूँ। संपूर्ण भूतों का आदि, मध्य और अंत मैं ही हूँ। कृष्ण कहते हैं कि वत्स, इस सृष्टि में जो कुछ है, वह मैं हूँ । मुझसे ही सृष्टि उत्पन्न हई है और संसार में जितनी भी चेष्टाएँ चल रही हैं, उन सबका मल तत्त्व और प्रेरक तत्त्व मैं हूँ। मेरे बगैर एक पत्ता भी नहीं हिल सकता । जिसको मैं चलाना चाहूँ, उसे कोई नहीं मार सकता और जिसके लिए मैं महाकाल बन चुका हूँ, उसे दुनिया में कोई नहीं बचा सकता। अब तक दुनिया में जितने श्रेष्ठ मुनिजन और ऋषिगण हुए हैं, उन्हें तू मेरा ही अवदान समझ । अगर धरती पर सूर्य तपता है और बगैर खम्भे के आकाश खड़ा है, अगर यह पृथ्वी शेषनाग के छोर पर खड़ी है तो इसमें भी तू मुझको ही मूल कारण जान । अगर किसी में सतोगुण, तमोगुण और रजोगुण-सब कुछ सक्रिय हैं, तो उनको सक्रिय करने वाला मूल तत्त्व मुझे ही समझ । चाहे कर्मेन्द्रियाँ हों या ज्ञानेन्द्रियाँ, चाहे मन हो या बुद्धि, सबके पीछे मैं ही हूँ । सब मेरी माया है, मैं सबमें हूँ। कृष्ण अर्जुन को संबोधित करते हुए कह रहे हैं कि मैं सब भूतों में स्थित सबकी आत्मा हूँ । जिन-जिन में आत्मा स्थित है, वह मेरी ही आभा, मेरी ही आत्मा है। हर आभा में परमात्मा का स्वरूप छिपा हआ है। अपनी व्यक्तिगत चेतना में परमात्म-चेतना के आह्वान का नाम ही जीवन में सही तौर पर ध्यान, आराधना और भक्ति है। फ़र्क केवल इतना ही पड़ रहा है कि महावीर कहते हैं-आत्मा ही एक दिन जाकर परमात्मा बनती है और कृष्ण कहते हैं-तुम्हारे भीतर जो आत्मा भीतर बैठा देवता | 125 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003890
Book TitleJago Mere Parth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2002
Total Pages234
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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