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________________ है। मैंने देखा है कि इस दुनिया में कोई भी आदमी भूखा नहीं सोता है । चींटी को कण मिलता है, तो हाथी को मन भी मिलता है । यह मनुष्य की कमजोरी है कि वह कल की चिंता में आज का लाभ नहीं उठा पाता । उसकी नजर आसमान पर है, उसे अपने पास की धरती नज़र नहीं आती। वह भविष्य के बारे में सोच रहा है, वर्तमान के बारे में उसका ध्यान ही नहीं है । मैं बहुत निश्चित रहता हूँ, क्योंकि जिस परमात्मा ने आज मुझे संपूर्ण व्यवस्थाएँ दी हैं, वह मुझे कल भी देगा। प्रकृति ने तो मेरे जन्म से पहले ही माँ की छाती में दूध भर दिया। एक तरफ़ मैं जन्मा, दूसरी ओर प्रकृति ने व्यवस्था की । मनुष्य के जन्म के साथ ही उसकी सारी व्यवस्था जारी हो जाती है, फिर हम किस बात की चिंता करें । हे प्रभु, हम तो तुम्हारे हो गये-हरि को भजे सो हरि का होई। हम तुम्हारा ध्यान धरते हैं, तुम हमारा ध्यान रखना। हम तुम्हारा स्मरण रखते हैं, तू भी हमारा स्मरण रखना । हम तो सागर में समाये, सागर हम में समा जाये । बूंद सागर की ओर चल पड़ी है, सागर बूंद का गन्तव्य है । सागर बूंद में आ जाये । वामन विराट हो जाये और विराट वामन में आ जाये । और यह तब होता है जब वह हमारा अनन्य हो जाता है। अपने लिए, अपने परिवार के लिए तो हर कोई जीता है, लेकिन बात तो तब है, जब उस प्रभु के लिए जिया जाये । जो भगवान के लिये जीता है, भगवान उसे जीता है; जो लोग भगवान का स्मरण करते हैं, भगवान खुद उनका स्मरण करते हैं। वो खुद हमारा ध्यान रखते हैं, जब हम उनका ध्यान धरते हैं । यह तो बिलकुल तादात्म्य की बात है, एकरस, एकलयता की बात है। वे सारी व्यवस्थाएँ करने को तैयार हैं । जैसे जीवन-बीमा वाले कहते हैं-योगक्षेमं वहाम्यहम्-तुम्हारे जीवन की सुरक्षा का दायित्व हम लेते हैं, बस तुम अपने बीमा की रकम पहुँचाते रहो । भगवान कहते हैं कि तू भी अपने को मेरे चरणों में पहुँचाता रह, तेरी व्यवस्थाएँ मैं संभाल लूंगा। आज तक किसी भी आदमी का काम नहीं अटका है । लोग कहते हैं कि उनके घर लड़की पैदा हो गई। वह बड़ी होगी। बीस साल बाद उसका विवाह करना होगा। इसके लिए पैसे का जुगाड़ करना होगा, पर अब तक किसी की बेटी पैसे के अभाव में कुँआरी नहीं रही है । समय पर सब काम होता चला जाता है। किस बात की चिंता करते हो? अर्जुन भी भयभीत हो उठा। क्षत्रिय का योगक्षेमं वहाम्यहम् | 113 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003890
Book TitleJago Mere Parth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2002
Total Pages234
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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