SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 120
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 1 श्रीराधाकृष्ण का गुजरना हुआ । राधाकृष्ण प्रत्यक्ष हुए, पर अंधा कैसे देखे । राधा ने वरदान मांगना चाहा, तो सूर ने कहा, मां ! तुम्हें जी भर निहारने की इच्छा है । राधा मुस्कुरायी, वह समझ गयी कि सूर ने ऐसा कहकर उससे क्या मांगा है ? राधा के वरदान के कारण सूर को आंख मिल गयीं । अपनी आंखों से राधाकृष्ण को, उनके रासलीलामयी भगवद् स्वरूप को निहारकर सूर धन्य-धन्य हो उठे, कृत-कृत्य हो उठे, नृत्य कर उठे, उनकी आंखों से श्रद्धा, समर्पण और धन्यवाद आंसू छलछल पड़े। सूर अपना आपा खो बैठा। कृष्ण प्रमुदित हो उठे । कहा, भक्त और क्या चाहते हो ? सूर बोले, प्रभु, माँ ने जो आंखें दी हैं, वे आप वापस लेलें । मैं नहीं चाहता कि जिन आंखों से भगवत् स्वरूप को देखा है, उन आंखों से अब और किसी को देखूं । कृष्ण ने देखा कि सूर की बात सुनकर राधा का भी हृदय गद्गद् हो उठा। राधा ने कहा - योगक्षेमं वहाम्यहम् - तुम्हारे कुशल-क्षेम को मैं वहन करूंगी। कितना गहरा भाव है। सूर की प्रार्थना कितनी निश्छल, निःस्वार्थ भरी है । भगवान तो सर्वत्र विहार कर रहे हैं, व्याप्त हैं, शक्ति हमारी पुकार में होनी चाहिये । भगवान तो चारों ओर हैं, सर्वत्र हैं । हमने अपने ही द्वार अपने हाथों से बंद कर रखे हैं । फिर सूरज की किरणें हमारे भीतर कैसे प्रवेश करेंगी ? . हम तो खोये हुए हैं संसार में। सुबह से शाम तक पैसा, पैसा, पैसा । हाय पैसा, होय पैसा ! पैसा-पैसा करते जीते हैं और पैसा-पैसा करते ही मर जाते हैं। पैसे की तरह पत्नी को भी तुम भूल नहीं पाते । यदि पत्नी जितना दर्जा भी भगवान को दे देते, तब भी कोई बात बन जाती, पर हमारी आंखों में भगवान नहीं, पत्नी है, वो पत्नी या पति है, जिसके कारण हम अपने छोटे भाइयों के पालन-पोषण के प्रति उपेक्षा का भाव रखते हैं । हमारे लिए पति, पत्नी, पैसा, दुनिया का यश, प्रतिष्ठा- ये सब चीजें इतना महत्त्व लेती जा रही हैं कि हम मंदिर जाकर परमात्मा से भी जुड़ रहे हैं, तो भी इसलिए कि मंदिर जाने से हमारी पत्नी खुश हो जायेगी, फैक्ट्री सही चलेगी, मुनाफ़ा होगा। इन क्षुद्रताओं से ऊपर उठिये, समर्पित भाव से परमात्मा से जुड़िये । 1 दुनिया को सुधारना संतों का काम है । यह बड़े उपकार का काम है । आप अपने पति, पत्नी या बच्चों को सही मार्गदर्शन दे रहे हैं, तो आप बहुत बड़ा उपकार कर रहे हैं । आप संत हुए। जब तक उनके पास सही मार्ग ही नहीं है, तो परमात्मा योगक्षेमं वहाम्यहम् | 111 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003890
Book TitleJago Mere Parth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2002
Total Pages234
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy