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शेष, गणेश, महेश, दिनेश, सुरेसहु जाहि निरन्तर गावै । जाहि अनादि अनंत अखंड, अछेद अभेद सुवेद बतावै। नारद से शुक व्यास रटै, पचिहारै तउ पुनि पार न पावै,
ताहि अहीर की छोहरियाँ, छछिया भरी छाछ पे नाच नचावै॥ जिसकी महिमा इतनी अपरम्पार है, उस भगवान को अहीर की छोरियाँ छछिया भर छाछ के लिए नाच नचाती हैं । सूर जैसे लोग तो भगवान की पिटाई भी करवानी पड़े, तो पिटाई भी करवा देते हैं। मां के सामने भगवान को रुलवा देते हैं, कान पकड़वा देते हैं और रोते-रोते कहलवा देते है-'मैया, मैं नहीं माखन खायो।' यह भावों का खेल है, भक्त और भगवान का खेल है। यह तो मिटने का खेल है। तब भगवान चाहे जिस देवधाम में रहते हों, लेकिन मीरा जैसी भक्त अपने आंखों से आंसुओं की बूंदों को ढुलकाते-ढुलकाते गा ही पड़ती है-'मेरे तो गिरधर गोपाल, दूसरो न कोई ।' वो तो उन्हें पति के रूप में वरण कर ही लेती है, अपना स्वामी मान ही लेती है। मीरा की तरह कोई मिटे, कोई बूंद सागर में जाकर मिले तो विष के प्याले अमृत क्यों न होंगे? तब तो उसके पायल की एक झंकार को सुनने के लिए वृंदावन की कुंज-गलियों में क्यों न आयेंगे? स्वतः आयेंगे।
भक्ति करते हए कभी क्या आँखों से दो आंसदलके हैं? क्या मंदिर में जाकर यह भाव जगा कि हे प्रभु, मुझे अपने में स्वीकारो, तुम्हारे बगैर मैं जी नहीं सकता। जिस तरह पत्नी दो-तीन दिन के लिए पीहर चली जाये, तो जीना हराम हो जाता है, क्या वैसी ही तड़फन, वैसी ही पीड़ा तुम्हें मन्दिर में जाने पर सताती है? पीड़ा पनपी नहीं, तो कैसे उसका मिलन होगा। यहां तो सब कुछ लुटाना पड़ता है, मकान और राजमहलों के भाव छोड़ देने पड़ते हैं । एकलयता होनी जरूरी है। खुद से ऊपर उठ जाना होता है। वही हो जाना होता है। तब कहीं जाकर भगवान साकार होकर अपने शंख को ध्रुव के होठों पर छूते हैं और कहते हैं कि तू प्रकाश से भर जा; तभी कोई श्री चैतन्य महाप्रभु अहोनृत्य करते हैं; तभी कोई मीरा नाचती है; तभी कोई तुलसी चंदन घिसते हैं और श्रीराम उनका तिलक करने ठेठ बैकुंठ से धरती पर पहुंचते हैं। यहां तो, मिटे तो मिलन हो।
कहते हैं : सूरदास भगवान की भक्ति में निमग्न थे। अपने इकतारे पर संगीत के रस में डूबे भगवद् स्वरूप को गुनगुना रहे थे। तभी उस ओर से
110 | जागो मेरे पार्थ
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