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________________ दिखाई नहीं देता । उसने यह बात कैसे कही होगी और उसने कैसी सुनी होगी। यह तो वे ही जानें । लेकिन कहानी कहती है कि उसने सुन लिया और कहा-मैं तो समझा था कि अंधा मैं ही हूँ लेकिन मुझे लगता है मुझसे गहरे अंधत्व में तुम हो। यहाँ सुनने कौन आता है, यहाँ देखने कौन आता है; यहाँ तो सिर्फ दिखाने आते हैं। अजीब किस्म की बहस है । समर्पण से और परमात्मा से बहुत कम लोगों का संबंध होता है। एक नदी के किनारे दो फकीर थे, उनमें विवाद हो रहा था। एक फकीर कहता था कि कुछ भी रखना ठीक नहीं, एक भी पैसा पास में रखना उचित नहीं है । दूसरा फकीर कह रहा था कुछ-न-कुछ पास होना जरूरी है वरना मुश्किल में पड़ जाएंगे। बात होते-होते नदी के तट पर आ गये । अंधेरा होने को था। उन्होंने नाव वाले से पूछा-उस पार छोड़ दोगे? उसने कहा-एक रुपया लेंगे और पार करा देंगे। एक फकीर ने जेब से रुपया निकाला । उसे दे दिया। नाव में बैठे ही थे कि बहस फिर शरू हो गई जिसने रुपया दिया था उसने कहा मैंने कहा था न कि कुछ-न-कुछ रखना जरूरी है। दूसरे फकीर ने कहा ये नाव वाला तुम्हें उस तरफ कुछ रखने की वजह से नहीं, बल्कि कुछ छोड़ने की वजह से ले जा रहा है । ऐसी बहसों का कोई अंत नहीं। हम लोगों ने परमात्मा को इतना महंगा बना डाला है कि परमात्म-स्वरूप की जो सरलता और ऋजुता है, पता नहीं वो कहां खो गई है। भगवान को हम इतना महंगा और इतना दुर्लभ क्यों बनाते हैं? कोई ऐसा थोड़े ही है कि भगवान किसी को कभी-कभार ही मिलता है । भगवान तो सर्वत्र है, सब जगह है । जहाँ याद करो, वहीं पर भगवान है । जहां उसकी पावनता को जीओ, वहीं उसका मन्दिर है। होता इसके विपरीत है। मनुष्य मन्दिर में भगवान को प्रतिष्ठित कर रहा है । वो क्या प्राण-प्रतिष्ठा देगा, जिसको स्वयं भगवान प्रतिष्ठा दे रहे हैं, जिसको प्राण स्वयं प्रकृति और परमात्मा की बदौलत प्राप्त है। महंगाई बढ़ गई है। हमने परमात्मा के मार्ग पर भी महंगाई को बढ़ा दिया है। धर्म पैसे में आकर सिमटा दिया गया है । मानो बगैर पैसे के भगवान मिलता योगक्षेमं वहाम्यहम् | 107 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003890
Book TitleJago Mere Parth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2002
Total Pages234
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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