SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 114
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आयेगा, शैतान आयेगा आदमी को अपनी गिरफ्त में लेने के लिए, मगर जब मनुष्य के पास प्रकाश की मौजूदगी है, अंधकार कुछ नहीं कर पायेगा। जिस दिन हमने प्रकाश को अपने से दूर करना शुरू कर दिया, उसी दिन से अंधकार सक्रिय हो जायेगा, शैतान अपनी बाहें फैला देगा। वह तो तैयार ही बैठा है कि किस तरह से मैं आदमी की नैतिकता को, इंसानियत को, उसके आदर-अदब-उसूलों को मटियामेट करूं। ऐसा नहीं है कि पाश्चात्य संस्कृति ने आकर हम लोगों को गुलाम बनाया है। आदमी गुलाम तभी बनता है, जब आदमी कमज़ोर होता है। गुलाम होने के कारण आदमी कमज़ोर नहीं होता, वरन् कमज़ोर होने के कारण आदमी गुलाम होता है। हमारे भीतर ऐसी कमियाँ और कमजोरियाँ रही हैं, जिनका फ़ायदा उन लोगों ने उठाया है, जिन लोगों का संबंध परमात्मा से नहीं, वरन् परमात्मा के नाम से पलने वाले स्वार्थों से है। धर्म और भगवान के नाम पर कितने अधिक व्यवसाय हो गये हैं। मंदिरों तक का व्यवसायीकरण होने लग गया है । एक व्यक्ति श्रद्धापूर्वक परमात्मा के मन्दिर में जाये, दो फूल चढ़ाए और उनकी आज्ञाओं को शिरोधार्य करके वापस लौट आये, यहां तक तो बात समझ में आती है, लेकिन मंदिरों में हमने पैसे को इकट्ठा करने के लिए बड़ी-बड़ी तिजोरियां रख दी हैं, भंडार बना दिये हैं, प्रसाद चढ़ाने के लिए चौकियां रख दी हैं । पुजारी का ध्यान पूजा करवाने में नहीं चढ़ावों में ज्यादा रहता है । किस व्यक्ति ने कितना चढ़ावा दिया है, उसी अनुपात में प्रसाद का बंटवारा होता है । हमने तो इतना व्यवसायीकरण कर दिया कि कई मंदिरों में तो प्रवेश के लिए भी टिकट लगता है, जैसे कोई फिल्म शो हो । भगवान के द्वार पर तो सारे ही भक्त हैं, कौन पहले, कौन पीछे । मगर हमने तो भगवान को खरीदना शुरू कर दिया है कि जो पच्चीस रुपये दे, वह मुफ्त वाले से पहले पहुंचेगा; पचास वाला पच्चीस रुपये वाले से पहले पहुंचेगा और जो सौ रुपये दे, वो पीछे से वहां पहुंचा दिया जायेगा। धर्म-शास्त्र तो कहते हैं कि प्रेम के वश में भगवान होते हैं, लेकिन हमने ऐसा रूप बना दिया है कि अब लगता है कि पैसे के वश में भगवान हैं। कृपा करके परमात्मा की पंक्ति में सारे लोगों के लिए एक जैसा रूप जो होता है, वही रूप रहने दो, परमात्मा की नज़र में कोई भेद नहीं है, कौन अमीर-कौन गरीब । योगक्षेमं वहाम्यहम् | 105 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003890
Book TitleJago Mere Parth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2002
Total Pages234
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy