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________________ प्रसन्नता और आनंद के झरने झरते हुए दिखाई देंगे। यदि एक छोटी-सी नज़र इन हरे-भरे वृक्षों पर डालो, तो ये वृक्ष कितने प्रमुदित, कितने प्रसन्न और कितने आनंदित दिखाई देते हैं। पानी मिला तब भी ठीक, न मिला तब भी कोई शिकवा-शिकायत नहीं। ये वृक्ष फिर भी हरे-भरे हैं। क्या इतनी ही खुशनुमा फ़िज़ा, आदमी के भीतर की दुनिया में है ? हमारे जीवन में तो न जाने कितनी चिन्ताएँ, कितनी पीड़ाएँ, न जाने कितने दुःख भरे पड़े हैं। किसी नदिया, सरोवर या सागर में उठने वाली लहरों को देखो । लहरें जैसे आसमान को छू लेना चाहती हैं। उनमें एक अलग ही मौज, एक अलग ही आनंद उमड़ रहा है । क्या इंसान सागर की लहरों की तरह ही आनंदित है ? एक दंपति ने बताया कि उन्हें वैवाहिक जीवन जीते हुए तीस साल बीत गये हैं और इन तीस सालों में एक बार भी उनके बीच तू-तू मैं-मैं नहीं हुई है। कभी घर में आक्रोश का कोई वातावरण ही नहीं बना है । न ही कभी इस तरह का वातावरण बनने दिया कि जिससे घर का स्वर्ग हमारे ही हाथों नरक बन जाये। उस दम्पति का प्रतिप्रश्न है कि हम क्रोध किस बात पर करें, किस बात पर गुस्सा आये, किस बात पर लड़ाई लड़ें? अगर क्रोध करने से कोई मामला सुलझता हो, तो क्रोध किया जाये, पर क्रोध करने से कोई मामला सुलझता नहीं है। मामले हमेशा प्रेम, शांति और विवेक से ही सुलझते हैं। कहीं ऐसा तो नहीं है कि हमारा अन्तर्मन क्रोध, कषाय और आक्रोश के कारण ही घर को नरक बना रहा है, हमारे जीवन से आनंद को छीन रहा है ? लगता है कि मनुष्य अपने पांवों पर खड़ा तो हुआ है, पर जितना खड़ा हुआ है, उतना ही अपने मन और हृदय से टूटा भी है। उसका अपने मूल स्रोत के साथ संबंध टा है। मनुष्य ने परमात्मा के साथ अपने संबंधों और नातों को तोड़ दिया है । लोग भले ही शिकायत करें कि पाश्चात्य शिक्षा और पाश्चात्य संस्कृति के कारण भारत की विचारधारा या भारत के दृष्टिकोण में बदलाव आया है या भौतिकवाद और नास्तिकता के कारण हमारे संबंध धर्म, मन्दिर और परमात्मा से टूटे हैं, मैं ऐसा नहीं मानता । अगर प्रकाश, प्रकाश है, तो प्रकाश के सामने संसार भर का अंधकार ही क्यों न आ जाये, वो अंधकार प्रकाश को अपनी आगोश में ही क्यों न ले ले, मगर प्रकाश का अस्तित्व मिट नहीं सकता। सारे संसार का तमस इकट्ठा हो जाये, फिर भी जलता हआ चिराग, जलता रहेगा। अंधकार 104 | जागो मेरे पार्थ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003890
Book TitleJago Mere Parth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2002
Total Pages234
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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