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________________ दूसरा चरण है-मन को हृदय-प्रदेश में स्थिर करना; तीसरा चरण है-फिर उस जीते हुए मन के द्वारा प्राण को मस्तक में स्थापित करना। पहला चरण है-सब इन्द्रियों के द्वारों को रोकना। इन्द्रियाँ तो सारी-की-सारी बाहर खुलती हैं और जैसे बंदर इस डाल से उस डाल पर और उस डाल से इस डाल पर उछलता-कूदता रहता है, ऐसे ही इन्द्रियाँ, ऐसे ही मन भी डोलता रहता है। जब तक तुम अपनी इन्द्रियों के द्वारों को न रोकोगे, अपनी इन्द्रियों पर अपना नियंत्रण न लाओगे, तो ये इन्द्रियाँ तुम्हें कहीं का न छोड़ेंगी, ये इन्द्रियाँ दिन-रात खाना चाहेंगी, दिन-रात बोलना चाहेंगी, इतनी बातें करने के बाद भी वो फिर-फिर बातें करने को लालायित रहेंगी । ये इन्द्रियाँ कभी कानों से संगीत सुनना चाहेंगी, कभी आँखों से रूप निहारना चाहेंगी, कभी सुखद स्पर्शों की संवेदना का अनुभव करना चाहेंगी । बाहर की ओर खुल रही इन इन्द्रियों के सारे द्वार बाहर खलते हैं और बाहर की चीजों के साथ, बाहर के तत्त्वों के साथ जब हम इनका संबंध जोड़ेंगे, तो परमात्मा गोलमाल हो जायेगा। फिर वे सभी बाहर की चीजें ही हमारे लिए सब कुछ होंगी। हमारा जीवन ही जगत बनता है और जगत ही अगर उलट जाये, तो वही जीवन बन जाता है । अनियंत्रित इन्द्रियाँ और मन कभी भी ध्यान और योग का मार्ग प्रशस्त नहीं कर सकते, क्योंकि मन और इन्द्रियाँ अनियंत्रित होंगी, तो दिन-रात फ़ज़ीती करती रहेंगी, फ़ज़ीती के सिवा कुछ न कर पायेंगी। कृष्ण आपको इसी फ़जीती, इसी अनर्गलता से बचाना चाहते हैं। दूसरा चरण है अपने हृदय-प्रदेश में उतरने का। यह बड़ी गंभीर बात है कि जो व्यक्ति अपने हृदय में उतर आता है, उस व्यक्ति का मन स्वतः ही शान्त होने लगता है । मन के द्वारा कोई भी व्यक्ति परमात्मा तक नहीं पहुँचता । परमात्मा का मार्ग तो हृदय का मार्ग है । परमात्मा का मार्ग तो सूर, तुलसी, मीरा, कबीर का मार्ग है । यह तो भक्ति का मार्ग है और भक्ति मन में नहीं बसती । मन में तो क्रोध, विकार, एषणा और न जाने कितनी छिछली चीजें रहती हैं । वह इरछा-तिरछा चलता रहता है । मन तो दिन-रात पाप में डूबा रहता है । मीरा ने कहा . “ऊँची चढ़ि-चढ़ि पंथ निहारूं"। 98 | जागो मेरे पार्थ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003890
Book TitleJago Mere Parth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2002
Total Pages234
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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