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________________ जाती है । कहाँ-कहाँ जोडू ॐ को । मुझे तो लगता है कि मेरा रोम-रोम ही, सृष्टि का हर स्वर ही ॐ है, हर सांस में ॐ की सरगम है । ॐ शान्तिः ' कहते ही सब कुछ शान्त हो जाता है। गीता कहती है कि जो एकाक्षर ब्रह्म स्वरूप ॐ को उच्चारित करता हुआ, उसका चिन्तन करता हुआ शरीर को त्यागकर जाता है, वह परम गति को प्राप्त होता है। शरीर छूटता है, मगर शरीर छूटने से पहले ही उसकी विदेह-मुक्ति हो जायेगी, वह परम श्रेय को उपलब्ध हो जायेगा। सर्वद्वाराणि संयम्य, मनो हृदि निरुध्य च । मूळयात्मनः प्राणमास्थितो योग धारणाम् ॥ ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म, व्याहरन्मामनुस्मरन्। यः प्रयाति त्यजन्देहं स याति परमां गतिम् ।। -सर्व इन्द्रियों के द्वारों को रोककर तथा मन को हृदय में स्थिर करके, मन के द्वारा प्राण को मस्तक में स्थापित करके, परमात्मा सम्बन्धी योग-धारणा में स्थिर होकर जो पुरुष एक अक्षर रूप ब्रह्म ॐ का स्मरण और चिन्तन करते हुए शरीर को त्याग जाता है, वह परमगति को प्राप्त होता है। अत्यन्त गहनतम सूत्र है यह । सूत्र में उतरकर ही सूत्र को जी सकोगे। इसीलिए मैंने शुरू में ही इस सूत्र के सागर में उतरने का आह्वान किया। गीता दो तरह की मुक्ति का उद्घोष करती है-एक, जीवन-मुक्ति तथा दूसरी विदेह-मुक्ति । जीवन-मुक्ति तो वह है कि जब देह में रहते हुए ही जीवन में मुक्ति को जीया जाता है और दूसरी मुक्ति वह है जब व्यक्ति देह को छोड़कर देह से रहित होकर मुक्ति को उपलब्ध होता है । गीता कहती है कि जब व्यक्ति उस एकाक्षर ॐ का स्मरण करते हुए अपने शरीर का त्याग करता है, वह परम गति को, परम धाम को, परमात्म-स्वरूप को उपलब्ध होता है । इस तरह जीवन, जो मृत्यु की ओर बढ़ रहा है, उसे एक सार्थक आयाम दिया जा रहा है । पर यह बात तो हुई मरने की । हम मृत नहीं हैं, जीवित हैं । जीवित अवस्था में ही हम उस ॐ का आचमन करेंगे। जीवित अवस्था में ही हम एकाक्षर ॐ का आचमन कर पाएं, इसके लिए कृष्ण हमारे समक्ष कुछ शर्ते रख रहे हैं । पहली शर्त-इन्द्रियों के द्वारों को रोकना, ॐ मंत्रों की आत्मा | 97 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003890
Book TitleJago Mere Parth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2002
Total Pages234
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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