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________________ लुहार-दोनों हथौड़ी व्यक्ति पर आकर गिरेगी, इसलिये ॐ के जाप का पहला परिणाम ही यह घटित होता है कि हमारे भीतर की मूर्छा टूटती है, हमारे भीतर यह समझ पैदा होती है कि हमारी मूल मूर्छा क्या है ? हमारी मूल आसक्ति क्या है ? हमारे मूल विकार और मूल कषाय तथा ग्रंथियाँ क्या हैं? ॐ के जाप का दूसरा परिणाम यह होगा कि हमारे भीतर जो सोई हुई शक्तियाँ हैं, वे शक्तियाँ जाग्रत होती हैं, हमारी आध्यात्मिक, मानसिक और शारीरिक शक्तियाँ जाग्रत होती हैं । ये बिलकुल व्यवहार में देखी गई चीजें हैं। हमारी सुषुप्त संभावनाएँ, हमारी अपनी सुषुप्त शक्तियाँ जाग्रत होती हैं इस ओंकार के जप-ध्यान द्वारा। गीता कहती है-'ॐ इति एकाक्षरं ब्रह्म' अर्थात ॐ ही एकमात्र अकेला अक्षर है, जो ब्रह्म का वाचक है । जब हम ॐ को अपने भीतर लेते हैं, तो ॐ के साथ सारे ब्रह्माण्ड में परिव्याप्त परमात्मा को भी अपने भीतर ले रहे हैं । न केवल ब्रह्म को, न केवल परमात्मा को, वरन् ब्रह्म के द्वारा फैले इस सारे ब्रह्माण्ड को, सारे अस्तित्व को अपने अन्तःकरण में, अपनी आगोश में ले रहे हैं। ॐ में एक और रहस्य निहित है कि ॐ में तीन बीज समाये हुए हैं । ॐ के 'अ' का संबंध पृथ्वी-बीज से बैठता है, उ' का संबंध बैठता है व्योम-बीज से, आकाश-बीज से और ॐ के 'म' का संबंध वायु-बीज से बैठता है, इसलिए यदि कोई व्यक्ति ॐ की यात्रा कर रहा है, तो वह भूमि से लेकर आकाश तक की यात्रा कर रहा है । ॐ अब तक मुक्त हो चुकी अनन्त आत्माओं का अपने भीतर आह्वान कर रहा है। यदि कोई व्यक्ति ॐ की साधना कर रहा है, तो 'अ' के जरिये वह अनंत तक विस्तार पा रहा है, 'म' से उसकी अंतिम मंजिल, उसकी मुक्ति बनती है, उसका मोक्ष बनता है। ___ॐ कण-कण में परिव्याप्त है । उसकी सत्ता तो दिशा-दिशा में है, पाताल से लेकर अनंत आकाश तक है । वह सुख में भी व्याप्त है और दुःख में भी व्याप्त है। जब मैं कह रहा है कि वह आकाश तक व्याप्त है, तो अपने आप उसका संबंध जुड़ता है सुख से भी और दुःख से भी । आकाश का एक पर्यायवाची शब्द है-ख और 'ख', ख से ही दुःख जुड़ा है और 'ख' से ही सुख जुड़ा है । आकाश जब हमारे अनुकूल होता है, तो सुख बन जाता है और जब प्रतिकूल होता है, तो दुःख बन जाता है । मुक्ति जब हमारे अनुकूल बन जाती है तो वही मुक्ति ॐ बन जाती है और जब मुक्ति प्रतिकूल बन जाती है, तो वही मुक्ति ॐ से हटकर दुःख बन 96 | जागो मेरे पार्थ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003890
Book TitleJago Mere Parth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2002
Total Pages234
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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