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भृकुटि के मध्य में, वह अवस्था पश्यन्ति कहलाती है । दृष्टि को दिव्य दृष्टि बनाने के लिए यह पश्यन्ति का चरण है और चौथा चरण है - परा । जब न बोलना है, न सोचना है, न उसे देखना है, वरन् इन तीनों ही स्थितियों से ऊपर उठकर केवल अनुभूति में, केवल उसके परम स्वरूप में अपने आपको विलीन कर लेने का नाम ही परा है । वैखरी वाणी का स्थूल रूप है । मध्यमा में बोलते नहीं, सोचते हैं । भाषा का बहिर्वर्ती रूप वैखरी है और उसका अन्तर्वर्ती रूप मध्यमा है । पश्यन्ति देखना है । यह देहरी का दीप है, जबकि परा समाधि की स्थिति है । पश्यन्ति में भाषा से कुछ ऊपर उठकर भाषा को देखा जाता है । उसका उपयोग किया जाता है । परा तो दिव्य ध्वनि वाली स्थिति है, अनक्षर वाली स्थिति है । इस स्थिति में आने पर ॐ ब्रह्म के रूप में उद्भूत होता है । ॐ इति एकाक्षरं ब्रह्म । अपने यहां चैतन्य-ध्यान की, ओंकार - ध्यान की जो प्रक्रिया है, उसमें इन चारों बातों का ध्यान रखा गया है कि वैखरी भी हो, मध्यमा भी हो, पश्यन्ति भी हो और परा भी हो । ये जप के तरीके हुए, चरण हुए।
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जब हम जप कर रहे हैं, तो यह भी समझें कि इस जप को करने का परिणाम क्या होगा ? पहले चरण में तो हम समझें कि हम ॐ का जप अत्यन्त सहजता से कैसे करें ? तो इसके लिए पहला चरण होगा ॐ का नाद अर्थात ॐ का उद्घोष । इसका दूसरा चरण है कि ॐ का भौरे की तरह अपने में गुंजन करो । तीसरा चरण होगा कि अपने सांस की गति मंद से मंदतर करो। और जितनी सांस गहरी होती चली जाये, ॐ के स्मरण को भी उतना ही गहराते चले जाओ । इसका अगला चरण होगा कि दीर्घ सांस लो । दीर्घ सांस के साथ अपने शरीर में फैल रही प्राणवायु आक्सीजन के साथ अपने शरीर में ॐ को विस्तृत होने दो । चौथा चरण होगा - अन्तर्मन्थन । श्वास और ॐ दोनों का ऐसा घर्षण, ऐसा मंथन कि ऊर्जा का नवनीत पैदा हो ही आये और पांचवाँ चरण होगा परा का । केवल मौन, केवल आनन्द । जो ऊर्जा भीतर में निष्पन्न हो चुकी है, उस ऊर्जा की उष्णता का केवल अनुभव करो और उसका ऊर्ध्वारोहण होने दो । चैतन्य-बोध घटित हो लेने दो ।
जब हम जप करेंगे, ध्यान और योग की प्रक्रिया के साथ प्राणायाम और ॐ को जोड़ेंगे, तो एक प्रतिफल घटित होगा। पहला प्रतिफल तो ओंकार के जप और ओंकार के ध्यान से यह घटित होगा कि मनुष्य की जन्म-जन्मान्तर से रहने वाली जो मूर्च्छा और आसक्ति है, उसको करारी चोट पहुंचेगी । सुनार और
ॐ मंत्रों की आत्मा | 95
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