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________________ ॐ में तीन अक्षर हैं अर्थात तीन के अंक पर आरूढ़ित है ॐ । तीन अंकों को लेकर ही उपनिषदों में श्रवण, मनन और निदिध्यासन का प्रतिपादन है, तो महावीर सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान और सम्यक् चरित्र की व्याख्या देते हैं । बुद्ध प्रज्ञा, शील और समाधि के रूप में तीन मार्ग देते हैं। अगर इनको प्रकृति के साथ जोड़कर देखा जाये तो गंगा, यमुना और सरस्वती जैसी पावन नदियाँ और गुणों के साथ जोड़ा जाये तो सतोगुण, रजोगुण और तमोगुण के रूप में तीन गुणों का संयोजन हमारे समक्ष है । तीनों ही गुण आकर ॐ में समा जाते हैं । महावीर की त्रिपदी भी ॐ से सम्बद्ध है । उत्पाद, व्यय और धौव्य - यह त्रिपदी है। अ अनादि-अनन्तता का वाचक है यानी धौव्य का । उ उत्पाद का और म मरण का यानी व्यय का । ॐ का अ अनन्त का द्योतक है, ॐ का ऊ ऊर्ध्वारोहण का और ॐ का म मोक्ष का । इसलिए ॐ एक संपूर्ण रहस्यमयी विद्या है, एक संपूर्ण ध्वनि है । एक पराशक्ति, एक बीज मंत्र है । 1 जब हम ॐ की ‘एनाटॉमी' को समझ रहे हैं कि ॐ का क्या विस्तार है, तो हम यह भी समझें कि ॐ का जप कैसे किया जाए ? प्राचीन धर्म-ग्रन्थों में जप के तीन भेद दिये गये हैं- भाष्य, उपांशु और मानस । भाष्य जाप का वह प्रकार है, जिसमें हम मंत्र का उच्चारण करते हैं । उपांशु जाप का वह रूप कहलाता है, जिसमें हम बीज-मंत्र का मनन करते हैं । तब वह हमारा सोच बन जाता है । जप का तीसरा प्रकार है-मानस । मानस का अभिप्राय यह होता है कि जब कोई भी मंत्र हमारे रोम-रोम, हमारे संपूर्ण अस्तित्व में, भीतर के ब्रह्माण्ड में परिव्याप्त हो जाता है तो वह मानस जाप कहलाता । भाषा में भाषा का उच्चार है, बोलना है । उपांशु में सुनायी देता है, केवल होंठ चलते हैं। मानस का मतलब आप ध्यानस्थ बैठें, फिर आप में मंत्र विस्तृत और वितरित हो रहा है। अगर हम इसे भाषा-शास्त्र की दृष्टि से देखें, तो भाषा के चार चरण होते हैं - वैखरी, मध्यमा, पश्यन्ति और परा । पहला चरण है- वैखरी । जब मंत्र का, भाषा का उच्चारण हो, तो वह वैखरी है । जब भाषा उच्चार्यमान हो रही है और होंठ बंद रहे अर्थात उच्चारण अन्तर में जारी रहे, उसी को कहते हैं-मध्यमा । तीसरा चरण वह होता है, जब न तो उच्चारण होता है और न ही उसके बारे में कोई सोच चलता है। अगर हम उसके चित्र को, उस स्वर या व्यंजन को हम अपने भीतर देखते हैं, अपने ललाट में, अपनी 94 | जागो मेरे पार्थ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003890
Book TitleJago Mere Parth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2002
Total Pages234
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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