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जागे सो महावीर
ज्ञान नहीं होता। जब उसे अपने विशुद्ध आत्म-स्वरूप का भान हो जाता है, तब व्यक्ति यह नहीं कहता कि मेरे विचार, मेरे मित्र, मेरा परिवार, मेरा घर, मेरा पुत्र, मेरापंथ, मेरा उपाश्रय। दुनिया में मेरा क्या है? आप कहते हैं मेरा शरीर, पर यह तो यहीं जल जाएगा। आप कहते हैं कि मेरे कपड़े, ये भी कुछ समय पश्चात् फट जाते हैं। आप कहते हैं मेरा भोजन। यदि वह आपका है तो फिर मल क्यों बन जाता है ? ___व्यक्ति का ममत्वभाव इतना प्रगाढ़ है कि धर्मशाला में भी यदि किसी कमरे में वह ठहरता है तो वहाँ भी अपना ताला लगा देगा और कहेगा कि यह मेरा कमरा है। एक महिला जिसने भगवान के पालने की बोली ली थी। उसको मैंने कहा कि पालने की भक्ति का कार्यक्रम मंदिर में रख लेते हैं। वह तुरन्त बोली कि 'नहीं, भक्ति का कार्यक्रम तो मेरे कमरे में ही होगा।' मैंने सोचा, 'अहो ! व्यक्ति की मूढ़ता तो देखो कि धर्मशाला से भी जहाँ एक दिन के लिए वह ठहरी, उसे भी वह अपना बता रही है!' राजनेता तो सीट के लिए लड़ते ही हैं, पर एक ट्रेन या बस में कुछ समय के लिए यात्रा करने वाला व्यक्ति भी आरक्षण का हवाला देकर सीट के लिए झगड़ता है। ___'मैं और मेरा' भाव ही आत्मा के शुद्ध स्वरूप को प्रकट नहीं होने देता। मैं अहंकार का सूचक है और मेरा उस अहंकार का पोषक । बकरी जिस प्रकार दिनरात मैं-मैं करती है उसी प्रकार आदमी भी तो दिन रात मैं-मैं करता है। क्या मैं और क्या मेरा? इस संसार में किसी की भी अकड़ कहाँ तक रही है? हम सब तो मुण्डेर पर सजाए जाने वाले उस दीपक की तरह हैं जो मिट्टी से ही बनते हैं और मिट्टी में ही मिल जाते हैं। तुम बेटे को अपना समझता हो और बेटा समझे कि माँ-बाप मेरे। कोई किसी का नहीं है। यह तो संयोग था कि तुमने अमुक माँ-बाप के निमित्त से जन्म लिया है।
सच तो यह है कि जीवन की सारी व्यवस्थाएँ एक संयोग भर हैं। लाभ भी एक संयोग है, और हानि भी। मृत्यु तो संयोग है ही, जन्म भी एक संयोग ही है। व्यक्ति संयोग को एक संयोग भर जान ले तो उसकी सारी आपाधापी शान्त हो जाए। वह व्यक्ति के साथ भी रहेगा और वस्तु के साथ भी, फिर भी दोनों के प्रति 'मैं' और 'मेरे' का अनावश्यक आग्रह नहीं होगा। जीवन की बोध-दृष्टि भी हमें यही सुझाती है कि हम शरीर को शरीर जितना महत्व दें और शरीर में रहने वाले आत्म-तत्त्व को आत्म-तत्त्व जितना। जीवन शरीर और आत्मा – दोनों का संयोग
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