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साधना की अन्तर्दृष्टि
है। जीवन में गुलामी की शुरुआत तब होती है जब हमशरीर और उसकी व्यवस्थाओं को ही सर्वाधिक अहमियत दे बैठते हैं।
__ अध्यात्म ने मानव-मुक्ति के लिए भेद-विज्ञान की बात कही है। भेदविज्ञान शरीर और आत्मा के बीच एक भेदरेखा स्थापित करता है। जैसे हंस दूध
और पानी को अलग-अलग करने और देखने की क्षमता रखता है। भेद-विज्ञान हमें ऐसी ही हंस-दृष्टि प्रदान करता है। कोई अगर मुझसे पूछे कि साधक की अन्तर्दृष्टि कैसी होनी चाहिये तो मेरा जवाब होगा 'हंस-दृष्टि'। ___ हमें यह बोध रहे कि हम शरीर में अवश्य रहते हैं, किन्तु हम शरीर नहीं है। विचारों का उपयोग करते हैं, किन्तु विचार नहीं है। मन हमारी शक्ति है जबकि हम मन नहीं हैं। मन, वचन और काया को अपने से भिन्न देखना अथवा स्वयं को मन-वचन-काया से अलग देखना यही अध्यात्म की जीवन-दृष्टि है। जैसे कोई व्यक्ति किराये के मकान में रहता है और उसका उपयोग करता है वैस ही हम अपने मन-वचन-काया को भी किराये का मकान ही समझें। भला अगर कोई कैदी जेलखाने को ही अपना घर मान बैठेगा तो वह उससे कैसे मुक्त हो सकेगा? घर, घर होता है और जेल-खाना, जेल-खाना। हम माल को कहीं मालिक से अधिक कीमत न दे बैठे। माल तो मालिक के उपयोग करने की चीज है। उसके प्रति मोह-मूर्छा रखकर 'मैं और मेरे' का दुराग्रह और अंधविश्वास न पालें।
हम मकान में रहें, पर इस बोध के साथ कि मकान हमारे रहने की एक व्यवस्था है।
हम परिवार के बीच रहें, पर इस बोध के साथ कि हम जिस परिवार में रहते हैं, उस परिवार के ममत्व तक तो कहीं हम सीमित नहीं हैं। ___ हम शरीर के मकान में रहते हैं पर हम शरीर नहीं हैं। शरीर का हमारे लिए उतना ही महत्त्व है, जितना किसी देवता की प्रतिमा रखने के लिए मंदिर का।
वाणी अभिव्यक्ति का साधन मात्र है। उसके साथ मैं का अहं और मेरे का मोह न हो। ___मन की पर्यायें परिवर्तनशील हैं। वह विचारधाराओं का एक काफिला है। हम मन के बहाव में नहीं बल्कि बोध की सजगता में जियें।
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