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________________ साधना की अन्तर्दृष्टि देखो, आकाश में उड़ने वाले परिन्दे को। कहीं यह हमारा मन ही तो नहीं है जो इच्छाओं के आकाश में अपने पंख फड़फड़ा रहा है। जगत को ध्यानपूर्वक देखते-देखते व्यक्ति की जगत के प्रति रही आसक्ति की ग्रन्थि शिथिल होने लग जाएगी और तब अनासक्ति के फूल खिल उठेगे। शरीर को देखें, उसमें उठने वाली हर वेदना-संवेदना के प्रति सदैव जागृत रहें। यह नहीं कि किसी ने रसगुल्ला दिया तो डाल दिया मुँह में, इलायची दी तो डाल दी मुँह में। पहले हम देखें कि क्या हमारे शरीर में भूख की वेदना प्रारम्भ हुई है? क्या भोजन ग्रहण करने की आवशयकता है? जब लगे कि हाँ, तब ही खाएँ। ___ अगर भीतर में लगता है कि शरीर के गुणधर्म जाग्रत हो रहे हैं तो पहले उन गुणधर्मों को, विचारों और मन को अच्छी तरह जानें, तब उन निमित्तों के पास जाएँ। शरीर की भंडास भी समझ, बोध और धैर्य के साथ प्रगट करें। समझ आ जाने पर ही अनासक्ति का फूल खिलेगा। तब साधक आगे बढ़कर जानेगा कि मेरा किसके प्रति राग, किसके प्रति द्वेष; कौन अपना और कौन पराया? यह सब तो मुझसे उसी प्रकार भिन्न हैं कि जैसे सागर के तट पर खड़ा कोई नारियल का वृक्ष और सागर। वृक्ष सागर को निहारता है और जानता है कि सागर उससे भिन्न है। उसी प्रकार कोई साधक, कोई दृष्टा, कोई साक्षी-पुरुष संसार में सबके साथ रहते हुए भी संसार से अलग रहता है। इस तरह भगवान ने साधना के तीन सोपान दिए। पहला, मन-वचन और काया के सभी अनुकूल और प्रतिकूल भावों की प्रतिबद्धता से मुक्ति, बहिरात्म-भाव का त्याग। दूसरा चरण है अन्तरात्मा में आरोहण और उसके बाद ही व्यक्ति परमात्मा के ध्यान के योग्य होता है। एक तरह से इस सम्पूर्ण ध्यान-पद्धति में बाहर से भीतर की ओर मुड़ना, भीतर के कोलाहल को शांत करना और फिर पराशक्ति काध्यान धरना अनिवार्य हो जाता है। यही है सार रूप में ध्यानपद्धति। यह सूत्र ध्यान की पद्धति पर प्रकाश डालता है। भगवान ने अगला सूत्र दिया को णाम भणिज्ज बूहो, णाउंसव्वे पराइए भावे। मज्झमिणं ति य वयणं, जाणतो अप्पयं सुद्धं ॥ भगवान कहते हैं, 'आत्मा के शद्ध स्वरूप को जानने वाला, परकीय भावों को जानने वाला ऐसा कौन ज्ञानी होगा जो कहेगा कि यह मेरा है।' व्यक्ति तभी तक ममता की जंजीरों में बंधा रहता है जब तक उसे अपने शुद्ध आत्म-स्वरूपका Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003888
Book TitleJage So Mahavir
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2012
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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