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________________ जागे सो महावीर धर्म आदतन नहीं हो जैसे कि एक व्यक्ति की सामायिक करने की पूजा करने की या मंदिर जाने की आदत पड़ जाती है। यह बुरा नहीं है तो अच्छा भी नहीं है। धर्म तो वह है जो व्यक्ति के आचरण में परिवर्तन ला दे। आदतन धर्म तो शराब, चाय या कॉफी की लत की तरह है क्योंकि व्यक्ति समय आने पर उन क्रियाओं का अभ्यस्त हो जाता है। इसलिए महावीर कहते हैं कि तुम मेरे अनुयायी बनने की जल्दी मत करो। पहले तुम उस मार्ग को सम्यक्-रूपेण जानो जिस पर तुमचलना चाहते हो। मार्ग को जानने के पश्चात् उस पर चलने का प्रयत्न करो। __ यदि व्यक्ति मन, विचार और काया के धर्मों को सही रूप से नहीं समझ पाया तो जब वह ध्यान के लिए बैठेगा तो वह मन के कुएँ में ही गोते लगाता रहेगा। इसलिए आवश्यक है कि व्यक्ति जब ध्यान में बैठे तो सबसे पहले अपने शरीर को, उसके धर्मों को, शरीर में उठने वाली वेदना-संवेदनाओं को ध्यान से देखे और उनसे उपरत होने का प्रयास करे। अपने विचारों को देखे और उनसे उपरत होने का प्रयास करे। अपने विचारों को देखे और स्वीकार करे कि किस तरह के विचार उठते हैं। मन और उसके धर्मों को भी साक्षी-भाव से देखे। जप,तप,ध्यान बाद में हैं। पहले व्यक्ति मन, वचन और काया पर विजय प्राप्त करे। स्व-चित्त के प्रति होने वाले सम्यक् जागरण का नाम ही ध्यान है। चित्त के शांत और उपशांत होने पर प्राप्त होने वाली अनुभूति ही आत्मज्ञान या आत्मानन्द है। ___चूँकि मैंने देखा है शरीर के गुण-धर्मों को, जाना है विचारों में उठने वाले भावों को और समझा है चित्त पर पड़े अनन्त जन्मों के संस्कारों को, इसीलिए मैं अनुरोध करता हूँ कि अपने चित्त के प्रति जागृत होना ही पर्याप्त है। ध्यान यही है। जब चित्त की उठापटक शांत होगी तो शांति के उन क्षणों की जो अनुभूति शेष रहेगी, उसी से आत्मज्ञान का प्रकाश पल्लवित होगा। __ इसीलिए भगवान ने कहा कि व्यक्ति प्रथमतः मन, वचन और काया के बहिरात्म-भाव का त्याग करे, फिर दूसरे चरण में अन्तरात्मा में आरोहण करे। सबसे पहले व्यक्ति संसार को ध्यानपूर्वक देखे। देखेराह में आते-जाते पक्षी को, सागर में उठने-गिरने वाली लहरों को,और फिर सोचे कि क्या हमारा जीवन भी इन राहगीरों की तरह ही तो नहीं है जो कुछ पल के लिए दिखते है और फिर आँखों से ओझल हो जाते हैं ? मनन करें कि हमारा जीवन इन लहरों की तरह तो नहीं है कि जैसे लहरें उठती और गिरती है वैसे ही व्यक्ति जन्म और मृत्यु की लहरों पर सवार है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003888
Book TitleJage So Mahavir
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2012
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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