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साधना की अन्तर्दृष्टि मांगा दान देकर उसकी हर इच्छा पूरी करते हो, इसीलिए मैं सूदूर अफगानिस्तान से तुम्हारे पास आया हूँ। अपना एक पात्र भी लाया हूँ, जिसे तुम भरो, यह मेरी इच्छा है।' सुलतान ने जब यह सब सुना तो वह प्रसन्न होकर बोला, 'तुम इतनी दूर अफगानिस्तान से चल कर हमारे पास आए हो तो हम भी तुम्हारा पात्र गेहूँ या चावल से नहीं, बल्कि सोने की अशर्फियों से भरेंगे।' कोषाध्यक्ष को आदेश दिया गया कि सोने की अशर्फियों से फकीर के उस पात्र को भरा जाए।
फकीर ने अपनी झोली से एक छोटा-सा पात्र निकाला। कोषाध्यक्ष ने उसमें अशर्फियाँ डालना प्रारम्भ किया। उस पाव भर के पात्र में पाँच किलो अशर्फियाँ उँडेल दी गईं तो भी वह पात्र पूर्ववत् खाली का खाली। सुलतान चौंक पड़ा। उसने सोचा कि यह तो मेरी प्रतिष्ठा का सवाल है। पात्र तो मुझे भरना ही है। उसने कोषाध्यक्ष को आदेश दिया कि राजकोष में जितना भी धन है उससे उस फकीर का पात्र भर दिया जाए। इतिहास बताता है कि सम्पूर्ण खजाना उस फकीर के पात्र में उँडेल दिया गया, तब भी वह पात्र खाली ही रहा। सुलतान शर्मिन्दा होकर उस फकीर के चरणों में गिर गया और बोला, 'महाराज, मुझे माफ करें और जाने से पहले कृपया यह अवश्य बताएँ कि आखिर यह चमत्कारी पात्र बना किस धातु से बना है?' फकीर बोला, 'सुल्तान ! यह पात्र किसी अन्य धातु का नहीं, बल्कि तुम्हारे मन के परमाणुओं से ही बना है। जैसे तुम्हारा मन इतना कुछ पाने पर भी अभी तक तृप्त नहीं हुआ, वैसे ही यह पात्र भी है।'
यह मन का पात्र है ही ऐसा कि इसको कितना ही भर दो, यह खाली का खाली रहता है। ऐसा मत सोचना कि बीस वर्ष की उम्र में ही यह अतृप्त रहता है, बल्कि अस्सी वर्ष के वृद्ध का मन भी वैसे ही उछल-कूद किया करता है। एक नासमझ बालक की तरह मन कभी यह करने की इच्छा करता है तो कभी वह; कभी यहाँ जाना चाहता है तो कभी वहाँ; कभी यह खाने की इच्छा करता है तो वह कभी सोने की।
भगवान कहते हैं कि साधना के मार्ग में तीन बाधाएँ हैं मन, वचन और काया। इनके बहिरात्म-भाव का त्याग कर अन्तरात्मा में आरोहण कर परमात्मा का ध्यान करो लेकिन किसी तरह की हड़बड़ी नहीं- 'उतावला सो बावला।' पहले व्यक्ति स्वयं का आत्म-निरीक्षण करके देखे कि क्या मैं परमात्मा के ध्यान के योग्य हूँ? मेरा अपने मन, वचन और काया के धर्मों पर कितना नियन्त्रण है?
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