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________________ जागे सो महावीर पहली है आहार की, दूसरी है भय की और तीसरी है काम या मैथुन की वृत्ति। यह वर्गीकरण फ्रायड का है। महावीर कहते हैं कि व्यक्ति में चार वृत्तियाँ या संज्ञाएँ होती हैं आहार, भय, मैथुन और निद्रा। ये वृत्तियाँ व्यक्ति के अन्तरमन में पैदा होती हैं। व्यक्ति की साधना में सबसे बड़ा कोई बाधक तत्त्व है तो वह है उसका मन, क्योंकि मन जो आदेश देता है, इन्द्रियाँ उसे शरीर के साथ मिलकर पूरा करती हैं। व्यक्ति का मन बड़ा ही चालक है। वह सपने तो दिखाता है स्वर्ग के, और ले जाता है नरक की ओर। ख्वाब तो दिखाता है किसी सुख के, लेकिन मन का अनुसरण करने पर मिलता है दु:ख । व्यक्ति मन के कारण ही तो वह सब कुछ कर बैठता है जो शायद वह नहीं करना चाहता। मन ही तो है जो यह सोचता है कि मुझे इसको पाना है, इसको छोड़ना है, यह करना है और यह नहीं करना है, उपवास करना है या उपभोग करना है। ये सब मन की ही तो देन हैं। उपवास करता है तो मन रात को ही उकाली पापड़ और मोगर की सोचता है और जब सुबह सब खाता है तो सोचता है कि अगली बार फिर उपवास कर लिया जाएगा। मनुष्य का मन तो बिन पेंदे के उस पात्र के समान है जिसको भरना असम्भव है। उसे चाहे जितना भरो, वह फिर-फिर खाली हो जाया करता है। व्यक्ति द्वारा मन की इच्छापूर्ति का प्रयास करना तो चलनी में पानी भरने के समान है। हर बार मन कहता है कुएँ में उतर और व्यक्ति उतर जाता है। मन कीछेद वाली चलनी ले कर व्यक्ति और पानी निकालता है, कभी काम के रूप में, कभी क्रोध के रूप में, कभी राग और कभी द्वेष के रूप में और प्रयास करता है मन की चलनी को भरने का, पर असंख्य छेदों वाली चलनी क्या कभी भर पाई हैं? मनुष्य का मन तो बे-पेंदे के लोटे के समान है जो कभी इधर लुढ़कता है तो कभी उधर। यह कभी तृप्त नहीं होता। किसी को कहो कि मन से दो मिनट के लिए शांत हो जाओ तो वह ऐसा नहीं कर सकेगा। एक लाख जाप करना व्यक्ति के लिए सहज है, परन्तु एक सौ मिनट भी मन को शांत रखना दुरूह है। व्यक्ति के लिए दस घण्टे की दया पालना आसान है, पर दस मिनट के लिए भी मन और शरीर में उठने वाले धर्मों पर नियन्त्रण रखना उसके लिए बहुत कठिन है। इतिहास की एक बहुत प्रसिद्ध घटना है। बल्ख देश के सुल्तान इब्राहीम के पास एक फकीर पहुँचा और बोला, 'सुल्तान! मैंने तुम्हारे बारे में बहुत सुना है कि तुम अपने दरबार में आए हुए किसी व्यक्ति को निराश नहीं करते। उसको मुँह Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003888
Book TitleJage So Mahavir
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2012
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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