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________________ साधना की अन्तर्दृष्टि आई थी। तभी तीसरा व्यक्ति जिसके हाथ में हाथी के पाँव आए थे, चिल्लाकर बोला, 'बेवकूफो, हाथी तो किसी खम्भे के समान होता है।' चौथा व्यक्ति जो अब तक चुप था वह बोला, 'मुझे लगता है कि तुम सब मूर्ख हो। तुमने किसी ने भी हाथी को सही नहीं जाना। अरे! हाथी तो किसी अजगर के समान होता है। चौथे व्यक्ति के हाथ में हाथी की चिकनी सैंड आई थी।' अब चारों ही व्यक्तियों में विवाद बढ़ गया। चारों ही आपस में अपने-अपने पक्ष में तर्क देकर लड़ने लगे। ___ तभी वहाँ एक समझदार व्यक्ति आया। उसने उन चारों की बातें सुनी तो वह बोला, 'तुम अकारण ही लड़ते हो, क्योंकि तुम चारों ही सही हो। हाथी वह है जिसके पाँव किसी बिजली के खम्बे के समान होते हैं, जिसके कान किसी हवा करने वाले पंखे के समान हैं, जिसकी पूँछ किसी रस्सी के समान है और जिसकी लॅड किसी चिकने अजगर के समान है। तुम चारों के पास ही सत्य का एक-एक अंश है। यदि तुम चारों ही अपने-अपने अंश को जोड़ लो तो पूर्ण सत्य तुम्हारे पास आ जाएगा।' आज व्यक्ति की स्थिति उन अन्धों के समान ही है जो अपने-अपने पक्ष को लेकर अपने-अपने आग्रहों और विचारों को लेकर विवाद कर रहे हैं, आपस में लड़ रहे हैं जबकि महावीर कहते हैं कि हर व्यक्ति के पास सत्य का अंश हैं। यदि हम हमारे विरोधी को भी ध्यानपूर्वक सुनें तो लगेगा कि उसकी बात में भी सच्चाई है। जहाँ सारे सत्य के अंशों को मिलाकर देखा जाए, वहीं अनेकान्तवाद होता है और जहाँ मात्र सत्य के एक-एक अंश को देखा जाए, उसी का नाम एकान्तवाद या नयवाद हो जाया करता है। महावीर ने विचार को सबसे बड़ी बाधा बताया, लेकिन उससे भी बड़ी बाधा मन को बताया जो कि विचारों की जन्मस्थली है। व्यक्ति का जागृत मन विचार है और सोया हुआ मन चित्त या वृत्ति है। दोनों में अन्तर समझ लें। व्यक्ति के दिमाग में जो क्षण-प्रतिक्षण चिनगारियाँ सुलगती रहती हैं, उनका नाम विचार है और व्यक्ति के अचेतन मन में जो पुद्गल-परमाणु एकत्र रहते हैं, उसे कहते हैं चित्तवृत्ति या अनकॉन्शियस माइन्ड। विचार, विकल्प, कल्पना, स्मृति तो क्षणप्रतिक्षण परिवर्तनशील होते रहते हैं, पर व्यक्ति का चित्त या वृत्ति वह संस्कार और मूल भाव है जिन्हें व्यक्ति साथ लेकर जन्मता है। यह परिवर्तनशील नहीं हैं। व्यक्ति जिन संवेगों, उद्वेगों और वृत्तियों को लेकर जन्मता है, उनमें तीन मूल वृत्तियाँ हैं। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003888
Book TitleJage So Mahavir
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2012
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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