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जागे सो महावीर
सताओ। मूल दोषी तो व्यक्ति के विचार हैं। व्यक्ति ने विचारों के आधार पर ही इतने दुराग्रह पाल रखे हैं कि 'यह मेरा विचार, यह तेरा विचार; यह मेरा पंथ और यह तेरा पंथ' जबकि वास्तविकता तो यह है कि विचार के आधार पर पलने वाले सभी आग्रह ही साधना के पथ में बाधक हैं। महावीर किसी विचार की स्थापना नहीं करते। वे तो निर्विचार होने की प्रेरणा देते हैं। ___महावीर के साधनामार्ग की शुरुआत ही निर्विकल्प और निर्विचार दिशा की
ओर से होती है। विचार तो अस्थायी होते हैं, क्षण-प्रतिक्षण परिवर्तनशील होते हैं। जैसे व्यक्ति के शरीर की पर्यायें अर्थहीन होती हैं, वैसे ही विचार मन की निरर्थक पर्याय है। लोग अपनी किताबों में लिखते हैं कि ये मेरे विचार, मेरे दृष्टिकोण। मैं पूछना चाहूँगा कि आपके जो विचार आते हैं, क्या दो साल पहले भी वे ही विचार हुआ करते थे? जब विचार अनित्य व क्षणभंगुर हैं तो विचारों को लेकर कैसा आग्रह, कैसा झगड़ा? व्यक्ति को सत्याग्रही नहीं होकर सत्यग्राही होना चाहिए अर्थात् सत्य का आग्रह न हो, बल्कि सत्य को ग्रहण किया जाए।
भगवान महावीर ने एक बहुत ही प्यारी घटना कही। चार अंधे किसी रास्ते से कहीं जा रहे थे। लोगों ने उन्हें चेताया कि इस रास्ते पर सावधानी से जाना क्योंकि इस रास्ते पर हाथी रहता है। तुम उससे टकरा कर कहीं गिर न जाओ। अन्धों ने मन में सोचा कि चलो, आज हाथी को भी देख लिया जाए कि हाथी कैसा होता है? वे देख नहीं सकते थे, पर उनमें जानने की गहरी इच्छा थी। चारों चले। रास्ते में हाथी मिला। हाथी बेचारा सीधा रहा होगा। एक अंधे ने हाथी के कान छुए और बोला कि अच्छा, हाथी ऐसा होता है। दूसरे के हाथ में हाथी की पूँछ आई तो वह बोला कि अब मेरी समझ में आ गया कि हाथी ऐसा होता है। तीसरे के हाथ में हाथी के पाँव आए तो वह बोला अब मैंने हाथी को पहचान लिया
और चौथे के हाथ में हाथी की सैंड आई वह भी बोला हाँ-हाँ हाथी कैसा होता है, मुझे मालूम पड़ गया है।
चारों व्यक्ति शाम के समय किसी चौपाल पर मिले और आपस में बतियाने लगे। पहला व्यक्ति जिसने कि हाथी के कान छुए थे, वह बोला 'मित्रो! आज मैंने हाथी को जान लिया है। हाथी बिल्कुल किसी हवा करने वाले पंखे या अनाज साफ करने वाले सूप के समान होता है। तभी दूसरा बोला, 'अरे! तुम गलत कहते हो। हाथी तो बिल्कुल एक रस्सी के समान होता है। उसके हाथ में हाथी की पूंछ
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