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साधना की अन्तर्दृष्टि
जब तक व्यक्ति शरीर के प्रति आसक्त और मूर्च्छित है, तब तक शरीर साधना के लिए बाधक है, पर जब व्यक्ति शरीर के प्रति अनासक्त हो जाता है तो वह साधना की प्रथम बाधा, जिसे महावीर ने शरीर कहा, उससे मुक्त हो जाता है। ___ हम शरीर-साधना का दूसरा उदाहरण लें। दूसरे प्रकार के वे लोग जो शरीर को साधना तो चाहते हैं पर उसके लिए वे एक बहुत ही प्रचलित योग - हठयोग अपनाते हैं। हठयोगी शरीर पर नियन्त्रण पाने के लिए कितने ही प्रकार की कठोर क्रियाएँ तथा कितने ही कठोर आसन करते हैं। यदि किसी हठयोगी से ब्रह्मचर्य का पालन नहीं होता तो वह कड़ों का सहारा लेता है ताकि उसकी इन्द्रियाँ संयम में रहें। ___ एक बहुत ही प्रचलित परम्परा है - अवधू या अवधड़ परम्परा। उसमें गुरु दीक्षा देने से पहले शिष्य को मल-मूत्र तक का सेवन करवा देते हैं। ऐसे व्यक्ति भूख लगने पर किसी का मल भी उठाकर खा लिया करते हैं। वे लोग का मांस और खून भी पी जाया करते हैं। वाराणसी और इलाहाबाद जैसे क्षेत्रों में वे नंगे या गन्दे कपड़ों में श्मशान या मैली कुचैली जगह पर बैठकर तन्त्रसाधना किया करते हैं। कहते हैं कि यदि कोई मुर्दा गंगा में बह रहा हो और यदि ये आवाज दे देते हैं तो बहता हुआ मुर्दा भी इनके पास आ जाता है। उन्होंने मुर्दे का पेट फाड़ा, जितना मांस अच्छा लगा, उतना खाया और बाकी का बहा दिया। इनका पता ही नहीं चलता कि वे क्या करते हैं। शरीर-संयम या स्वाद-विजय? ___ महावीर शरीर-संयम के ये तरीके कतई स्वीकार नहीं करते।वे तो हर व्यक्ति को साधना की वह अन्तरदृष्टि देना चाहते हैं कि जहाँ शरीर है, पर व्यक्ति शरीर के भावों से उपरत है। रोग है, पर व्यक्ति रोग का साक्षी भर है। तब भोजन की आकांक्षा शरीर से उठती है, पर हम भोजन करने वाले नहीं अपितु हम तो शरीर में मात्र भोजन डालते हए देखने वाले हैं। जब व्यक्ति की शरीर के प्रति आसक्ति क्षीण होती है, तब व्यक्ति महावीर की साधनादृष्टि का प्रथम सोपान पार कर ही लेता है।
बहिरात्म-भाव का दूसरा चरण है 'विचार', जो कि शरीर से भी सूक्ष्म है। व्यक्ति जैसा-जैसा विचार करता है, शरीर वैसा-वैसा ही तो सम्पादित करता है। वह तो विचार की प्रेरणाओं से ही अपनी गतिविधियाँ सम्पादित करता है। शरीर तो बेचारा एक गुलाम है जिसे तुम मंदिर ले जाओ तो वह मंदिर चला जाएगा और यदि मदिरालय ले जाओगे तो मदिरालय चला जाएगा। तुम शरीर को व्यर्थ ही मत
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