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जागे सो महावीर
जिस प्रकार कार और उसका चालक अलग-अलग होते हैं, उसी प्रकार शरीर और आत्मा हैं। जैसे चालक कार को चलाता है, वैसे ही आत्मा शरीर को चलाती है। जब तक आत्मा शरीर का संचालन करे, तब तक तो ठीक है, पर जब आत्मा शरीर की गुलामी करने लगे तो व्यक्ति के लिए यह घातक हो जाया करता है। यह हम पर निर्भर है कि हम शरीर को अपना कर्मचारी बनाते हैं या अपना संचालक। शरीर ने जो-जो खाने की इच्छा की, उसकी पूर्ति यदि कर दी जाए तो यह शरीर की गुलामी ही हुई। यदि मन पर विजय प्राप्त कर शरीर को मन की इच्छित वस्तुएँ नहीं दी गई तो यह उस पर स्वयं का संचालन, स्वयं का नियन्त्रण है। शरीर के रोगग्रस्त होने पर हम दुखी हो जाते हैं तो यह शरीर के प्रति हमारी गुलामी और मूर्छा भाव है। यदि रोगों के आक्रमण पर भी हम अपनी समता नहीं खोते हैं तो यह व्यक्ति का शरीर पर अपना अधिकार है।
हम एक साध्वी का उदाहरण लें जिनका नाम था विचक्षणश्री। उनको जीवन की सांध्यवेला में कैंसर जैसी भयानक बीमारी ने घेर लिया किन्तु वे ऐसे असाध्य रोग के प्रति भी उसी प्रकार निर्लिप्त रहीं जैसे कि कीचड़ से कमल की पांखुरियाँ। इतनी भयानक वेदना ! जब भी कोई व्यक्ति उनके दर्शन के लिए जाता तो वे अपने जाप और ध्यान में तल्लीन रहतीं। उनके चेहरे पर इस प्रकार के सहज सौग्य भाव होते कि जैसे वे एकदम नीरोग और स्वस्थ हों। उनकी छाती पर कैंसर की गांठों से रिसता मवाद और खून भी उनको तनिक भी विचलित नहीं कर पाता। एक आम आदमी तो एक छोटी सी फुसी होने पर ही घबरा जाता है, रोने लगता है, पर वह साध्वी तन में व्याधि और मन में समाधि की स्थिति को उपलब्ध हो गई थीं। मैं इसे विदेह स्थिति कहूँगा। __ जब छाती के एक हिस्से में बहुत बड़ी गाँठ हो गई तो डॉक्टरों ने कहा कि हम आपको बेहोश कर इस गाँठ से मवाद निकालना चाहते हैं। उनका जवाब था, 'इतने जन्मों तक मैं इस शरीर की मूर्छा से मूर्च्छित ही तो थी। अब पुण्यों से जागृत हुई हूँ। अब मैं बेहोशी में जीवन खोना नहीं चाहती। तुम मुझे मेरी माला दे दो और तुम्हें जो कार्य करना है, उसे करो।' तब वह साध्वी अपने जाप और ध्यान में इतनी एकाग्र तथा इतनी तल्लीन हो गईं कि कब उसका मवाद निकाला गया, उसे पता ही नहीं चला। यह है शरीर के प्रति अनासक्ति, शरीर के प्रति वीतराग और वीतमोह का भाव।
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