SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 90
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ साधना की अन्तर्दृष्टि हम प्रथम चरण लें। प्रथम चरण में साधना के मार्ग में तीन बाधाएँ आती हैं, जिनके चलते व्यक्ति अन्तरात्मा में आरोहण नहीं कर पाता। ये तीनों बाधाएँ उसके सामने उस दीवार के समान खड़ी हो जाती हैं जो व्यक्ति को दीवार के उस ओर जल रहे अन्तरात्मा के दीप से साक्षात्कार नहीं करने देती। ___ पहली बाधा है शरीर। यह स्थूल है। इसके भीतर स्थित है विचार और उसके भीतर मन। महावीर ने जिसे काया कहा, उसे ही विज्ञान ने बॉडी कहा। महावीर ने जिसे विचार कहा, विज्ञान ने उसे ही कॉन्शियस माइन्ड या चेतन मस्तिष्क कहा। महावीर ने जिसे मन कहा, विज्ञान ने उसे ही अनकॉन्शियस माइंड कहा। मन के दो रूप हैं। एक चेतन और दूसरा अवचेतन। अवचेतन मन को ही सामान्य भाषा में हम चित्त और मन कहते हैं। लगता तो ऐसा ही है कि चित्त और मन एक दूसरे के पर्याय हैं, पर इन दोनों में गहरा फर्क है। मनुष्य का सोया हुआ मन ही उसका चित्त है और उसका जागा हुआ चित्त ही उसका मन है। मनुष्य का जागा हुआ चित्त ही उसका कॉन्शियस माइन्ड है और उसका सोया हुआ मन ही उसका अनकॉन्शियस मांइड है। दोनों में फर्क यह है कि एक सोया हुआ है और दूसरा जाग्रत, एक अन्तर व्याप्त है, दूसरा प्रकट। ___ हम सबसे पहले प्रारम्भ करें शरीर से। यह शरीर स्थूल है जो हमें प्रत्यक्ष दिखता है। इसको हमने नहीं बनाया। यह तो हमें अपने माता-पिता के द्वारा मिली भेंट है। कुदरत की एक सौगात। महावीर ने एक तरफ तो शरीर को साधना-भाव में कंटक बताकर कहा कि मन-वचन-काय के बहिरात्मभावको छोड़कर अन्तरात्मा में आरोहण किया जा सकता है और दूसरी तरफ हम कहते हैं, 'शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनं ।' यानी शरीर ही साधना का प्रथम साधन है। इस बात को यदि हम गहराई से समझें तो इन शब्दों के मर्म को समझा जा सकता है। शरीर व्यक्ति के लिए साधना में प्रथम सहायक है, पर वह कंटक या बाधा उस समय बन जाता है जब व्यक्ति उस शरीर के प्रति मूर्च्छित होकर उस शरीर को ही स्वयं (आत्म-तत्त्व) मानने लगता है। शरीर तो आत्मा के रहने के लिए मकान भर है। जिस प्रकार मकान और उसमें रहने वाला मालिक भिन्न होता है, वैसे ही आत्मा और शरीर का संबंध है। जब तक व्यक्ति मकान में रहता है, तब तक वह उसके लिए उपयोगी है, पर जब व्यक्ति में मकान रहने लग जाए तो वह उसके सहज सुख के लिए बाधक हो जाया करता है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003888
Book TitleJage So Mahavir
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2012
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy