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साधना की अन्तर्दृष्टि
मेरे प्रिय आत्मन् !
जीवन उतना ही विशाल है जितना कि आसमान । जीवन उतना ही गहरा है जितना कि समुद्र । ज्यों-ज्यों जीवन की परतें खुलती जाती हैं, त्यों-त्यों उसकी पारदर्शिता निखरती जाती है। ज्यों-ज्यों जीवन पर जमी हुई धूल हटाते हैं, त्योंत्यों जीवन का आईना स्पष्ट नजर आता है। जीवन को गहराई से देखने पर तत्त्वतः ज्ञात होता है कि जैसा जीवन बाहर है, वैसा ही भीतर भी है। जैसे बाहर अंधेरा है, वैसे भीतर अंधेरा है, जैसे बाहर रास्ते हैं, वैसे ही रास्ते भीतर भी हैं ।
जीवन और जगतका बारीकी से निरीक्षण करने पर यह जाहिर होता है कि जीवन जगत का केन्द्र है और जगत जीवन का ही प्रतिबिम्ब है । जैसा केन्द्र पर होता है, वैसा ही परिधि पर झलकता है। परिधि की मौलिक संभावनाएँ धुरी पर केन्द्र से ही जुड़ी रहती हैं। आदमी के समक्ष जीवन केवल जन्म से शुरू होने वाली यात्रा है और मृत्यु पर समाप्त हो जाने वाली स्थिति । किन्तु, जिसने जाना है जन्म से पहले और मृत्यु के बाद की स्थितियों को, वह भली-भाँति जानता है कि जीवन का वास्तविक अस्तित्व न जन्म से आरम्भ होता है और न ही मृत्यु पर पूर्ण । कोई प्राणी अनन्त शून्य की तरफ बढ़ जाया करता है । अनन्त शून्य से आने वाला जन्म हमारे लिए जीवन का आधार होता है और अनन्त शून्य में फिर समा जाना हमारे लिए मृत्यु का निमित्त बन जाया करता है ।
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