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________________ सम्यक्त्व की सुवास करना । जहाँ पर व्यक्ति के साथ भोग-साधना तो नहीं है, पर मन-ही-मन विषयों सेवन जारी है। सजगता और जागरण चाहिए । 'जागे सो महावीर, सोए सो सिकन्दर' सिकन्दर पैस का मालिक बन सकता है, पर स्वयं का मालिक नहीं बन सकता । महावीर तो वही है जो स्वयं को उपलब्ध कर चुका है और स्वयं पर नियन्त्रण स्थापित कर चुका है । जैसे कि किसी घर में विवाह है और कोई व्यक्ति वहाँ अतिथि रूप में आया है। वह पुरुष विवाहादि कार्य में लगा रहता है, बारातियों की व्यवस्था और स्वागत भी करता है पर वह ऐसा करने से उस विवाह में मालिक नहीं बन जाता । कर्ताभाव न होने से, स्वामित्व भाव न होने के कारण विवाह में जो अच्छा - बुरा हुआ उससे वह नहीं जुड़ता है । कर्ताभाव ही व्यक्ति को बाँधता है। जहाँ व्यक्ति के भीतर में यह भाव आ जाता है कि मैं कुछ नहीं करता और जो होनी वह हो रही है तो वह मात्र द्रष्टा रह जाता है । किसी के जीवन में अच्छा लिखा है तो अच्छा हो रहा है और यदि किसी के जीवन में बुरा लिखा है तो बुरा हो रहा है । इसमें प्रशंसा या निन्दा कैसी ? ७५ कोई आदमी अच्छा जीवन जी रहा है तो आप कहेंगे कि वाह ! कितना अच्छा व्यक्ति है। वहीं एक साधु यदि गृहस्थ में आ जाए तो आपका उसके प्रति क्या नजरिया होगा ? आप उसे बुरी नजर से देखेंगे। कुछ अच्छा या बुरा नहीं होता, यह योग अथवा नियति है जो अच्छा हो जाता है और यदि कुकर्म का उदय Fat To Fit है । किसे बुरी नजर से देखा जाए? वह व्यक्ति कम-सेकम ईमानदार तो है कि उसने इस बात की सत्यता को स्वीकार कर लिया कि उससे अब साधु-जीवन नहीं सध रहा है। उसने साधु-जीवन का झूठा बाना तो नहीं पहने रखा है। आपने अपने जीवन के साठ वर्ष के गृहस्थ में बिताए । कमसे-कम उसने पाँच, दस या कुछ वर्षों तक तो चारित्र - जीवन जिया । फिर वह आपसे श्रेष्ठ ही हुआ । उसके प्रति घृणा या बुरा भाव क्यों रखा जाए ? - एक दिन मैं फूलों से बतिया रहा था । मैंने वृक्ष और फूलों से कहा कि लोग अभिनन्दन-पत्र छपाते हैं, पर वास्तविक अभिनन्दन पत्र तो तुम्हारा छपना चाहिए । मैं एक किताब लिखना चाहता हूँ। सोचता हूँ तुम्हारे जीवन पर ही किताब लिख दी जाए। अतः तुमने अपने जीवन में जो-जो सेवाएँ मानवजाति को अर्पित की हैं, वह मुझे बताओ ताकि मैं पुस्तक लिख सकूँ। फूल हँसा और मुस्करा कर बोला, Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003888
Book TitleJage So Mahavir
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2012
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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