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________________ ७४ जागे सो महावीर उस लड़की को छूआ बल्कि उस लड़की का हाथ पकड़कर तूने उसे नदी के पार पहुँचा दिया।' तानजेन चौंका और बोला, 'ओह ! तो आप उस लड़की के बारे में बात कर रहे हैं। मैं तो नदी पार करा कर उसे वहीं छोड़ आया और आप उसे यहाँ तक साथ लेकर आए हैं।' ईकिडो बोले, 'मतलब!' तानज़ेन ने कहा कि मैंने उस लड़की की परिस्थिति समझी और मैं तो स्वयं उस पार जा ही रहा था, अतः मुझे उसे उस पार ले जाने में कोई दिक्कत नहीं हुई। लेकिन मुझे तो लड़की को पार लगा देने के बाद उसका स्मरण भी नहीं रहा और आप उसे उठा कर यहाँ तक ले आए!' मूल बात है भीतर की अनासक्ति। जब व्यक्ति के जीवन में ऐसी सम्यक् दृष्टि और सम्यक्त्व की सुवास प्रकट हो जाती है तो व्यक्ति का हर कृत्य उसे मुक्त कराने में सहायक बनता है। इसी सन्दर्भ में भगवान अगला सूत्र दे रहे हैं - सेवंता विण सेवइ, असेवमाणो वि सेवगो होई। पगरणचेट्ठा कस्स वि, ण य पावरणोत्ति सो होई॥ भगवान ने बहुत गहरी बात कह दी इस सूत्र के माध्यम से। हम ध्यान से उसे समझने का प्रयास करें। भगवान कहते हैं, 'कोई तो विषयों का सेवन करते हुए भी सेवन नहीं करता और कोई सेवन न करते हुए भी विषयों का सेवन करता है। जैसे अतिथि रूप से आया हुआ कोई पुरुष विवाहादि कार्य में लगा रहने पर भी उस कार्य का स्वामी न होने से कर्ता नही होता। ___ भगवान बिल्कुल गीता जैसी भाषा में बोल रहे हैं। गीता का आधार ही अनासक्ति योग है। भगवान महावीर भी बिल्कुल श्रीकृष्ण जैसे बोल रहे हैं। भगवान कहते हैं कि कोई तो विषयों का सेवन करते हुए भी सेवन नहीं करता। जैसे कोई आदमी मुनीम या बैंक कैशियर है। वह दिन-रात नोटों के ढेर के बीच बैठा रहता है। उन्हें गिनकर अलमारी में जमा करता जाता है। लोग कहेंगे कि वह लाखों-करोड़ों के बीच बैठा है। लेकिन उस व्यक्ति का अन्तरमन जानता है कि वह रुपयों के बीच रहकर भी उनसे निर्लिप्त है। वह एक ट्रस्टी की तरह कार्य कर रहा है और उसे हर पल यह भान है कि रुपया उसका नहीं है। दूसरी तरफ एक व्यक्ति भिखारी है, सड़क पर सोया-सोया वह सपने देखता है कि मैं सम्राट् बन गया हूँ। मेरे सात-सात राजमहल और सात-सात राजरानियाँ हैं। उनके साथ मैं मौज मना रहा हूँ। यह हुआ विषयों का सेवन न करते हुए भी विषयों का सेवन Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003888
Book TitleJage So Mahavir
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2012
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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