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________________ सम्यक्त्व की सुवास पंकज तो कमल और कीड़ा दोनों ही हैं क्योंकि जो पंक से अर्थात् कीचड़ से उपजे, वह है पंकज। पर एक तो कीचड़ में पैदा हो कर भी ऊपर उठ जाता है और दूसरा कीचड़ में जन्म लेकर कीचड़ में ही मर जाता है। एक अन्धेरे से आया, गंदगी से आया, पर उजाले की तरफ - सुवास की तरफ अपने कदम बढ़ाता है। दूसरा अन्धेरे और गन्दगी से आया और उस अन्धेरे एवं गन्दगी में ही फँस कर रह जाता है। हम सब कीचड़से ही तो पैदा हुए हैं। माँ के पेट में क्या है ? रक्त है, मांस है, मज्जा है और माँ के द्वारा खाए हुए अन्न का मल है। हम सब इस कीचड़ से ही तो निकले हैं। साधना का सम्यक्त्व और मुक्ति का मार्ग उनके लिए ही है जो कीचड़ को कीचड़समझकर उससे उपरत होने के लिए प्रयत्न करते हैं। एक कमल वह है जो कीचड़ से पैदा होता है और उससे उपरत हो जाता है और एक कमल वह है जिसकी पाँखुरियों पर कीचड़ चढ़ आती है। कमल का कीचड़ में पैदा होना कभी भी आत्म-घातक नहीं है, पर कीचड़ का कमल की पाँखुरियों पर चढ़ आना आत्मघातक है। ऐसे ही किसी व्यक्ति का संसार में रहना, गृहस्थ-धर्म का पालन करना और अपने बच्चों की अच्छी देख-भाल करना आदि कभी गलत या बुरे कार्य नहीं हैं, पर उस संसार में और उस गृहस्थी में ही रच-बस जाना सदैव आत्मघातक होता है। संसार में तुम रहो, यह खतरनाक नहीं है, पर संसार तुम में रहे, यह खतरनाक हो जाया करता है। इसलिए भगवान महावीर प्रत्येक व्यक्ति को श्रावक-जीवन या शुद्ध जीवन का स्वामी बनाने के लिए यह प्रेरणा दे रहे हैं कि व्यक्ति संसार से उसी तरह निर्लिप्त रहे जैसे कमल का फूल कीचड़ से रहता है। कोई आता है, मिलो और प्रेमपूर्वक बात भी करो; इसमें कोई समस्या या बुरी बात नहीं है, पर समस्या तो तब आती है जब व्यक्ति बिछुड़ जाने के बाद भी पूर्व स्मृतियों में खोया रहता है। जैसे कोई व्यक्ति ट्रेन या बस से दो घण्टे के लिए ही सफर करता है। वहाँ पर किसी से उसकी दोस्ती हो जाती है। ऐसा लगता है कि बहुत पुराना मित्र हो। व्यक्ति को तो छोड़ो, सीट से ही दो घण्टे के लिए लगाव हो जाता है और आदमी कहता है कि 'यह मेरी सीट है।' जैसे कोई सामयिक करने वाली बहन जब प्रवचन सुनने आती है तो वह सबसे पहले अपना आसन बिछा देती है, अर्थात् यह जगह उसकी हो गयी....और तो छोड़ो भिखारियों की जगह भी निश्चित होती है। वहाँ कोई दूसरा भिखारी नहीं बैठ सकता है जैसे ट्रेन या बस में किसी की रिजर्व सीट पर Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003888
Book TitleJage So Mahavir
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2012
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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