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जागे सो महावीर
के द्वारा प्ररूपित व्रतों को आचरित करे । व्यक्ति जैन, बौद्ध या ब्राह्मण कुल में जन्म लेकर ही जैन, बौद्ध या ब्राह्मण नहीं कहलाता है अपितु अपने आचरणों से ही वह पहचाना जाता है ।
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व्यक्ति श्रावक तो तभी बन पाता है जब उसके जीवन में प्रामाणिकता आए । यदि एक संत कोई अनुचित व्यवहार करता है तो आप कह दोगे कि अब से तुम संत नहीं रहे ऐसे ही आप मिलावट करते हो, कालाबाजारी करते हो, टैक्स चोरी या अन्य कोई अप्रामाणिक कार्य करते हो तो आप श्रावक कैसे हो सकते हो ।
श्रावक होना बहुत बड़ी साधना है। भगवान आपके कदम उसी साधना पथ की तरफ मोड़ना चाहते हैं । व्यक्ति अपने कर्तव्यों को पूरा करे पर उनमें ही फँस जाए या उन कर्तव्यों के पालन के लिए झूठ या बेईमानी का सहारा ले तो यह उचित नहीं है । जैसे सामने यह छोटी-सी बिटिया बैठी है । इसके पालन-पोषण की जिम्मेदारी माता-पिता पर है, पर इसके लिए झूठ - साँच करना या बेईमानी का सहारा लेना तो अनुचित ही है । व्यक्ति अपनी पूरी जिन्दगी उस गधे की तरह बिता देता है जो कभी तो घर और कभी घाट की ओर दौड़ लगाता है। उसे यदि पूछा कि पैसे के पीछे तू इस कदर पागल क्यों बना जा रहा है, तो उसका जवाब होता है कि बेटी की शादी करनी है ।
अरे ! अभी से व्यर्थ की चिंता क्यों की जाए, उस समय जैसी सुविधा होगी, वैसे शादी हो जाएगी। अगर तुम अपने जीवन की अशान्ति या भागदौड़ का जिम्मेदार बच्चों की शादी या परवरिश को मानते हो तो तुमने संतान ही क्यों पैदा की ? यदि संतान पैदा की है तो शान्तिपूर्वक अपने कर्त्तव्यों का निर्वाह करो और उसमें ही उलझ कर मत रह जाओ। मैल उतारने के लिए जैसे साबुन घिसता जाता है, ऐसे ही व्यक्ति की जिंदगी इस पैसे की भागदौड़ में घिसती चली जा रही है।
इसलिए भगवान कहते हैं कि व्यक्ति संसार में रहकर अपने कर्त्तव्यों का पालन करे, किन्तु उनमें लिप्त न हो। संसार में रहना तो हर किसी को ही पड़ता है। संतजन भी तो इसी संसार में रहते हैं । संत भी आपकी तरह खाते-पीते हैं, मकानो में ठहरते हैं, चलते-फिरते और बोलते -चालते हैं। पर यदि अन्तर है तो किस बात का ? वह है - र्निलिप्तता का, विरक्ति का । कीड़ा और कमल दोनों ही कीचड़ से पैदा होते हैं, पर कीड़ा तो उस कीचड़ में ही धँसता जाता है जबकि कमल कीचड़ में पैदा होकर भी कीचड़ से ऊपर उठ जाया करता है ।
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