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सम्यक्त्व की सुवास
नन्दीसूत्र में एक सीधे-सरल उदाहरण के द्वारा समझाया गया है कि कर्मनिष्कर्म या लिप्तता-निर्लिप्तता में क्या अन्तर होता है ? एक तुम्बा या तुम्बड़ी जो पानी में नहीं डूबती, उस पर मिट्टी और घास का एक लेप लगा दिया जाय तो वह कुछ अधिक ही डूबेगी।
जितना-जितना लेप के द्वारा भार बढ़ेगा, उतना-उतना ही तुम्बा समुद्र या नदी के अन्दर उतरता जाएगा । महावीर मुक्ति का मार्ग बता रहे हैं। यदि कोई पूछे कि मुक्ति कैसे प्राप्त की जाए या आत्मा का ऊर्ध्वारोहण कैसे हो तो महावीर कहते हैं कि तुम्बे पर से जैसे-जैसे लेप उतरता जाएगा, वह वैसे-वैसे ऊपर उठता चला जाएगा और एक दिन जब लेप पूर्ण रूप से हट जाएगा तो तुम्बा समुद्र के ऊपर तैरने लग जाएगा।
वह लेप हटेगा एक मात्र सम्यक्त्व के प्रभाव से। भगवान कहते हैं कि जैसे कमलिनी का पत्र स्वभाव से ही जल से लिप्त नहीं होता, वैसे ही सत्पुरुष सम्यक्त्व के प्रभाव से कषाय और विषयों से लिप्त नहीं होता ।
व्यक्ति का स्वभाव ही ऐसा बन जाता है कि वह कषाय और विषयों से लिप्त नहीं हो पाता।
समकितधारी जीवड़ा, करे कुटुम्ब प्रतिपाल।
अन्तरगत न्यारो रहे, ज्यों धाय खिलावे बाल॥ जैसे कोई धाय या नर्स जो बच्चे की देखभाल के लिए रखी जाती है, वह बच्चे के मल-मूत्र को साफ करती है, उसे नहलाती है, उसके साथ खेलती है और जरूरत पड़ने पर उसे अपना दूध भी पिलाती है। लेकिन उसे अन्दर में हमेशा इस बात का भान रहता है यह बच्चा उसका अपना नहीं है। ऐसे ही समकितधारी जीव, अपने परिवार के संग रहता है, उसका पालन-पोषण भी करता है, पर वह अन्तर से उसी प्रकार अलग रहता है जैसे धाय बच्चे के साथ बाहरी रूप से जुड़ी होने पर भी अन्तर से अलग रहती है।
मूल्य है निर्लिप्तता का। श्रावक और संत वही है जो निर्लिप्त हो। लोगों ने दो श्रेणियाँ बना ली हैं - एक श्रावक की और दूसरी संत की। केवल संत के बाने को पहन लेने से ही कोई संत और श्रावक कहलवाने से ही कोई श्रावक नहीं बन जाता। श्रावक वह है जो भगवान के मार्ग पर श्रद्धा रखे, उस पर चले और भगवान
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