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________________ ६८ जागे सो महावीर ___पीछे दो लोग हँस रहे हैं। वे अभी बच्चे हैं। उन्हें अपने इस अन्धे प्रवाह के आगे कभी मजबूर नहीं होना पड़ा है। लेकिन जब वे उम्र की दहलीज पर कदम आगे बढ़ाएँगे तो उन्हें इस बात का अहसास निश्चित रूप से होगा कि व्यक्ति कर्म-प्रकृति और जन्म-जन्मान्तरों के संस्कारों के चलते अपने आगे ही कैसे विवश हो जाता है ? वह स्वयं के सामने ऐसे ही विवश हो जाता है जैसे कोई नौकर या गुलाम किसी सेठ के सामने हो जाता है। यह जो मन का कोढ़ है, वह किसी पतलून और कमीज से नहीं छिप सकता। यह फिर उभर ही आता है। इसलिए भगवान कहते हैं किबोधिया दर्शन (अन्तरदृष्टि) दुर्लभ है। दर्शन को सबसे अधिक महत्त्व देने का कारण यही है कि व्यक्ति अपने मन के कोढ़ को दूर करे, भीतर की शुद्धि हो और भीतर विजय प्राप्त हो। यदि व्यक्ति के भीतर निर्लिप्तता होगी तो बाहर स्वयमेव ही निर्लिप्तता आती चली जाएगी। आभ्यन्तर शुद्धि ही बाहरी शुद्धि का आधार बनती है। ___ यदि आन्तरिक निर्लिप्तता और शुद्धि नहीं है तो व्यक्ति चाहे बाहर से संत बन जाये या बारह व्रतधारी श्रावक, लेकिन वह अपने उस अन्धे प्रवाह के आगे फिर-फिर विवश हो जाया करता है। चाहे धन हो, दौलत, जमीन, कषाय या इन्द्रियों के विषय हों, व्यक्ति विवश होकर उनका गुलाम बन ही जाया करता है। ___ मुक्ति के महावृक्ष का यदि कोई बीज-तत्त्व है तो वह है सम्यक्त्व। मुक्ति के पथ का चिराग भी सम्यक्त्व है। इसी सन्दर्भ में भगवान अपना आज का सूत्र दे रहे हैं सलिलेणण लिप्पइ, कमलिणिपत्तं सहाव पयडिए। तह भावेण ण लिप्पइ, कसाय विसएहिं सप्पुरिसो॥ भगवान कहते हैं 'जैसे कमलिनी का पत्र स्वभाव से ही जल से लिप्त नहीं होता, वैसे ही सत्पुरुष सम्यक्त्व के प्रभाव से कषाय और विषयों से लिप्त नहीं होता।' भगवान कहते हैं कि सम्यक्त्वशील जीव विषय-कषायों से लिप्त नहीं होता। यदि संसार का कोई आधार है तो वह है आसक्ति और लिप्तता और मुक्ति या मोक्ष का कोई साधन है तो वह है निर्लिप्तता। लेप वह है जो व्यक्ति को बांधे रखता है, उसे भारी बनाकर ऊपर उठने नहीं देता। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003888
Book TitleJage So Mahavir
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2012
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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