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जागे सो महावीर
___ यदि किसी अंधे को आँख मिल जाए तो उसकी जीवन-यात्रा सफल हो जाया करती है। जब तक व्यक्ति के जीवन में बोधि की सुवास या सम्बोधि की आँख न हो तो उसके द्वारा की जाने वाली सभी धार्मिक क्रियाएँ राख पर किए गए लेपन के समान होगी अर्थात् राख पर की गई लीपा-पोती ही होगी।
वीतराग से क्या प्रार्थना की जा सकती है? उस वीतराग से उसकी वीतरागता के अतिरिक्त क्या माँगा जा सकता है? जब सुबह उठकर प्रार्थना की जाए तो यह माँगा जाए कि हे प्रभु ! जीवन में एक बार सम्यक्त्व का दीप जला दे जिसकी रोशनी मेरे जीवन को सदैव राह दिखाती रहे। भगवान कहते हैं कि सम्यक्त्व के बिना एक श्रावक, श्रावक नहीं होता और एक संत, संत नहीं होता। सम्यक्त्व के बिना व्यक्ति बहिरात्म-भाव में ही जीता है। अंतरात्मा तो वह तब होता है जब उसका जीवन सम्यक्त्व के फूल से सुवासित होता है।
महावीर ने साढ़े बारह वर्ष के मौन साधनाकाल में वाणी का उपयोग मात्र एक बार किया। जब कोई सर्पराज महावीर को एक डंक मारने के लिए उद्यत होता है और महावीर उसे स्वयं को काटते हुए देखते हैं तो उनके मुख से यह शब्द निकले थे - बुज्झ-बुज्झ-बुज्झ। भगवान महावीर अपनी तरफ से जो पहली प्रेरणा दे रहे हैं, वह मात्र किसी सर्प के लिए नहीं, वरन् उस प्रत्येक व्यक्ति के लिए है जिसके भीतर क्रोध का सर्प जीवित है, पल रहा है।
बुज्झ शब्द का अर्थ है बोध को प्राप्त करो। जाने कब तक हम माया के दलदल में इस तरह फंसे रहेंगे, कब हमारे जीवन में ऐसा अपूर्व अवसर आएगा जब हमें भी बोधि की प्राप्ति होगी? भगवान के सभामण्डप में जाकर भी लोग उनसे वंचित रह गए थे लेकिन यदि सुधरने की जुगत हो तो किसी तिर्यंच योनि में रहा सर्प भी बोधि को प्राप्त हो जाया करता है। यदि सुधरने की जुगत न हो तो एक संत भी सर्प-योनि की तैयारी कर सकता है। महावीर का यह शब्द मुझे रह-रह कर याद आता है कि 'तुम बोधि को प्राप्त करो, सम्यक्त्व को, हंस-दृष्टि को प्राप्त करो।' ___ जब चण्डकौशिक, महावीर के शब्दों को सुनता है; वह अन्तर की गहराई में पहुँच कर, बोधि को उपलब्ध होता है। वह अपने अतीत को देखता है, 'अहो! मैं संन्यस्त हुआ, पर क्रोध-कषायों में मरकर यहाँ सर्प के रूप में जन्मा। मेरे क्रोधकषायों ने मेरी गति को दुर्गति में बदला, लेकिन अब मैं अपनी दुर्गति को सद्गति
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