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________________ सम्यक्त्व की सुवास मिले तो दोनों विकल्पों में से वह किस विकल्प का चयन करेगा तो शायद वह स्पष्ट उत्तर न दे सके। __भगवान ने अपने ही शिष्य से कहा था, 'वत्स, तुम्हारी नरक कट सकती है यदि तुम पुणिया से उसकी एक सामायिक खरीद लाओ। नरक आपकी भी कट सकती है यदि आप उन पाँच रुपयों की रसीद से सामायिक खरीद लें, पर शर्त यह है कि उन पाँच रुपयों की रसीद को खरीदने के लिए आपने एक लाख रुपये को पीठ दिखाई हो। जो व्यक्ति संसार का आकांक्षी है, उसकी दृष्टि में तो एक लाख रुपये ही मूल्यवान होंगे लेकिन जो मुक्ति का अभिलाषी है, उसकी दृष्टि में सम्यक्त्व मूल्यवान होगा। ___एक ओर त्रैलोक्य का लाभ हो और दूसरी तरफ सम्यक्त्व का लाभ हो तो त्रैलोक्य-लाभ की अपेक्षा सम्यक्त्व का लाभ श्रेष्ठ है। जीवन में दृष्टि है तो व्यक्ति की हथेली में यदि दस रुपये भी आ जाते हैं तो वह उनका मूल्य जान सकता है, लेकिन किसी अन्धे की हथेली में यदि करोड़ों-अरबों रुपयों के कागजात भी दे दिए जाएँ तो उसके लिए करोड़ों रुपयों के वे कागज भी मात्र एक सादे कागज से अधिक नहीं होंगे। उस अन्धे व्यक्ति के लिए तो धरती का सारा साम्राज्य भी अर्थहीन हो जाता है। भगवान यही तो कहना चाहते हैं कि व्यक्ति के समक्ष त्रैलोक्य का लाभ और सम्यक्त्व का लाभ हो तो वह दोनों में से क्या चाहेगा, यह उसके लक्ष्य, प्रतिबद्धता और लक्ष्य के प्रति समर्पण पर निर्भर करेगा। वज्रस्वामी को उनकी माँ ने बचपन में एक हाथ में खिलौने दिये और दूसरे हाथ में संयम के उपकरण दिये तो बालक ने खिलौने फेंक दिये और संन्यस्त जीवन के उपकरण लेकर वह नाचने लगा। व्यक्ति की दृष्टि ही किसी भी पदार्थ को मूल्यवान या निर्मूल्य बनाती है। ___ भगवान कहते हैं कि अतीत में जितने सिद्ध हुए, वर्तमान में जो हो रहे हैं और भविष्य में जो भी होंगे, वे सब मात्र सम्यक्त्व के प्रभाव से ही होते हैं। मुक्ति का आधार है सम्यक्त्व। सम्यक्त्व का अर्थ है - सम्यक् बोधि, जिसे पाने के बाद हंस-दृष्टि उपलब्ध हो जाती है। हंस-दृष्टि अर्थात् ऐसी दृष्टि जहाँ दूध और पानी को अलग-अलग देखा जा सके। दाने और मोती को अलग-अलग किया जा सके। ऐसी हंस-दृष्टि या सम्यक् बोधि जिस व्यक्ति को उपलब्ध हो जाती है, वह जड़चेतन, पुण्य-पाप, संवर-आस्रव और मुक्ति-बंधन में अन्तर करने में समर्थ हो जाता है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003888
Book TitleJage So Mahavir
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2012
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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