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हम ही हों हमारे मित्र
नहीं कर पाएगा। दूसरी तरफ वह व्यक्ति जो साधारण है और मात्र चार हजार रुपये माहवार कमाता है, जब खाना खाने बैठता है तो भगवान का शुक्रिया अदा करता है कि प्रभु ! तेरा धन्यवाद कि तुमने मुझे आज का दिन दिखाया और आज का भोजन प्रदान किया। वह व्यक्ति जिस सुख का अनुभव करेगा, उसके आगे लाखों का धन भी अर्थहीन है। व्यक्ति को सुख या दु:ख उसके विचार और विचारों में समाई हुई आसक्तियाँ ही देती हैं। ___ भगवान महावीर ने अपने सूत्र में बहुत गहरी बात कही है। हम बाह्य निमित्तों को अपने शत्रु या मित्र मान लेते हैं जब कि ये सब तो संयोग मात्र हैं। जो आज हमें शत्रु लगता है, वह हो सकता है कि किसी अन्य भव में हमारा सबसे प्रिय मित्र रहा हो। जो आज मित्र लगता है, वह किसी जन्म का हमारा कट्टर शत्रु हो, यह भी संभव है। यह सब तो नदी-नाव का संयोग भर है। कोई व्यक्ति मित्र तब तक ही रहता है, जब तक उसकी तुमसे स्वार्थ-सिद्धि होती है। तुम चाय पिलाओगे तो बदले में तुम्हें भी समोसे खाने को मिल जाएंगे और यदि तुमने चाय बंद कर दी तो समोसे मिलने भी बंद हो जाएँगे।
भगवान कहते हैं कि 'तुम स्वयं ही अपने मित्र और शत्रु हो।' हम जब क्रोध करते हैं तो हम कितने दुःखी हो जाते हैं, खुद को हानि पहुंचाते हैं, सामने वाले का कलेजा जलाते हैं और ऊर्जा का अपव्यय करते हैं। ऐसी स्थिति में हम हमारे शत्रु ही तो होते हैं। शत्रु का कार्य होता है सामने वाले को नुकसान पहुँचाना। क्रोध करके हम स्वयं को दुखी करते हैं, स्वयं को हानि पहुँचाते हैं और स्वयं के स्वयं ही शत्रु बन जाते हैं। जो आदमी नेक रास्ते पर चलते हैं, दया, प्रेम, क्षमा, समता, नम्रता, अवैर और मैत्री की राहों का दामन थामते हैं, वे स्वयं के मित्र होते हैं।
क्या आप चाहते हैं कि आपके सौ-सौ शत्रु हों ? स्वाभाविक है कि हर व्यक्ति चाहेगा कि उसके शत्रु कम हों, मित्र अधिक हों। पर बाहरी मित्रों से बात न बन पाएगी क्योंकि ये सब तो तब तक ही अपने हैं जब तक उनका स्वार्थ सधता चले। इसीलिए भगवान कहते हैं कि तुम गुणों के विकास के द्वारा अपने मित्र बनाओ। अभी तुम आधे घंटे के लिए क्रोध करके देखो, तुम्हें लगेगा कि तुम्हारे भीतर अग्नि जल रही है। वह आग तुम्हें भी जलाने लगेगी। तुम्हारी ऊर्जा का अपव्यय होने लगेगा और तुम स्वयं अपने शत्रु ही बन बैठोगे। यदि तुम पन्द्रह मिनट के लिए जरा प्यार से मुस्कराओ, अपनी आँखों में प्यार के सागर को
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