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हम ही हों हमारे मित्र
____ आत्मा ही सुख-दु:ख का कर्ता और भोक्ता है। सद्प्रवृत्ति में स्थित आत्मा ही अपना मित्र है और दुष्प्रवृत्ति में स्थित आत्मा ही अपना शत्रु है।'
भगवान इस मार्मिक सत्य को उद्घाटित कर रहे हैं कि व्यक्ति स्वयं ही अपनी स्थिति के लिए जवाबदेह है। व्यक्ति के जीवन का समस्त दायित्व यहाँ उसके साथ जोड़ा जा रहा है। भगवान कहते हैं कि यदि दुःख की वैतरणी में तुम डूब रहे हो तो उसका कारण भी तुम स्वयं हो और यदि तुम स्वर्ग सरीखे सुखों के साम्राज्य को भोग रहे हो तो उसके प्रबंधक भी तुम स्वयं हो, कोई और नहीं।
भगवान कहते हैं कि आत्मा ही वैतरणी है, आत्मा ही कूटशाल्मली वृक्ष है, आत्मा ही कामधेनु है और आत्मा ही नंदन वन है। आत्मा अर्थात् हम स्वयं। हम आत्मा को कोई बहुत बड़ा हौआ या बहुत दूर की चीज समझ लेते हैं। आत्मा का अर्थ है- मैं; आत्मा का अर्थ है - तुम। आत्मा यानी 'अस्तित्व'; आत्मा यानी 'मनुष्य'। भगवान जीवन के इस विज्ञान को प्रकट कर रहे हैं कि आत्मा यानी मनुष्य स्वयं ही अपने सुख-दु:ख का कर्ता है। ___ व्यक्ति यदि आज दु:ख के काँटों की चुभन महसूस कर रहा है तो उसका कारण यह है कि उसने अतीत में केक्टस लगाया था और यदि उसे सुख की सुन्दर फुलवारी मिल रही है तो उसके बीज भी उसने स्वयं ही बोए हैं।
जीवन के इस सत्य को न समझने के कारण व्यक्ति दूसरे पर आरोप लगाता है कि उसने मुझे दुःख दिया या यह मेरे सुख का कारण है। वे सब तो संयोग या निमित्त मात्र हैं। हम जिस सुख या दुःख का अनुभव कर रहे हैं, उसका कारण हमारी स्वयं की अतीत या वर्तमान में रही वृत्तियाँ और प्रवृत्तियाँ हैं। पति सोचता है कि मुझे पत्नी से सुख मिल रहा है, माँ-बाप समझते हैं कि बेटा उनके सुख का कारण है। पर नहीं, ये निमित्त अवश्य बन सकते हैं, पर मुख्य कारण तो तुम्हारा पुण्य है। ____यदि पुण्य होगा तो बिना पत्नी या पुत्र के भी तुम सुखमय जीवन जी लोगे
और यदि पुण्य नहीं है तो दस-दस बेटे भी तुम्हारे जी का जंजाल बनेंगे। वे तुम्हारी सेवा नहीं करेंगे। व्यक्ति सोचता है कि बुढ़ापे में मेरी सेवा कौन करेगा, इसलिए बेटा होना चाहिए। अरे ! तुम अभी से बुढ़ापे को क्यों आमंत्रण दे रहे हो, जब कि वह आया ही नहीं है। जो व्यक्ति जवान है, और कल भी स्वयं को जवान देख रहा है तो वह परसों भले ही शरीर से बूढ़ा हो जाए, पर वह स्वयं में उसी प्रकार
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