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जागे सो महावीर
हैं। गुरुदेव ने तो मुझे आदेश दिया था कि ऐसी जगह कबूतर की गर्दन मरोड़ी जाए, जहाँ कोई देख न सके। यह उपयुक्त स्थान नहीं है। ऐसा सोचकर वह किसी दूसरे स्थान की तलाश में आगे बढ़ा। वह एक खेल के मैदान में पहँच गया जहाँ कोई पेड़ भी नहीं था। जैसे ही उसने कबूतर की गर्दन पकड़ी, उसे लगा कि यहाँ तो आसमान में उगा सूरज मुझे देख रहा है। तब वह सूर्यास्त का इंतजार करने लगा।
रात हुई तो चाँद और तारे, आसमान में खिल गए। वह परेशान होकर ऐसी जगह की तलाश करने लगा जहाँ आकाश ही नहीं दीखे।
अन्तत: वह एक ऐसी काली, भयानक गुफा में प्रवेश कर गया जहाँ प्रकाश की किसी किरण का नाम तक नहीं था। उसने गुफा में चारों तरफ देखा। वहाँ कोई भी नहीं था। जैसे ही उसने कबूतर की गर्दन पकड़ी, तभी उसे लगा कि अरे ! यहाँ भी तो दो प्राणी देखने वाले हैं। एक तो स्वयं कबूतर अपनी गर्दन मरोड़ते हुए मुझे देखेगा और दूसरा मैं, स्वयं कबूतर की गर्दन मरोड़ते हुए देखूगा। उसे लगा कि इस जगत में ऐसा कोई स्थान है ही नहीं, जहाँ कोई देखने वाला न हो। अत: वह कबूतर को साथ लेकर आश्रम की तरफ चल पड़ा। __दोनों ही शिष्य आश्रम में पहुँचे। पहले शिष्य ने खुशी से कहा, 'गुरुवर ! मैंने आपके आदेश का पालन कर दिया है।' दूसरा शिष्य सिर झुकाकर बोला, 'गुरुदेव ! मैं क्षमा चाहता हूँ। मैं आपके आदेश को क्रियान्वित नहीं कर सका ! मुझे सृष्टि में ऐसा कोई स्थान नहीं मिला जहाँ स्वयं से छिपाकर कोई कार्य किया जा सके।' ___ गुरुदेव अपने दूसरे शिष्य की बात सुनकर हर्षविभोर हो उठे। उन्होंने उसे प्रणाम समर्पित कर गले से लगा लिया। वे समझ गए थे कि यही वह बीज है जो आगे चलकर एक वटवृक्ष बनकर संसार के दुःखों से पीड़ित पथिकों को आश्रय और छाया देगा।
जिस दिन व्यक्ति को यह समझ आ जाय कि हर अंधेरे में स्वयं के कृत्य को वह स्वयं देखने वाला है, उसकी चेतना या उसके भीतर बैठा देवता सब कुछ देख रहा है तो वह पुण्य की पारमिताओं को छू जाएगा। उसका चलना-फिरना, उठनाबैठना, खाना-पीना, हँसना-रोना सब कुछ पुण्यपथ का ही अनुगमन होगा। उसके पाप स्वयं ही दूर हो जाएंगे। भगवान महावीर आज के अपने सूत्रों में कह रहे हैं -
अप्पा कत्ता विकत्ता य, दुहाण य सुहाण य। अप्पा मित्तममित्तं च, दुप्पट्ठिय सुप्पट्ठिओ॥
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