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हम ही हों हमारे मित्र
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मूल स्रोत क्या है ? मैं, माँ की कोख में आने से पूर्व क्या था? मरने के बाद जब यह पंचभूत की काया जल जाएगी, तब मैं कहाँ रहूँगा? क्या मेरी हथेली में भाग्यरेखा ही है या अन्य कोई सत्य भी है? जब व्यक्ति ईमानदारी से इन तथ्यों का चिन्तन करेगा तो वह अवश्य ही अपने भीतर रहने वाले आत्म-देवता को पहचान लेगा। आत्म-चिंतन ही आत्मा के अस्तित्व तक पहुँचने का पहला सोपान है।
व्यक्ति अब तक यह नहीं समझ पा रहा है कि उसका देवता वह स्वयं है। वह जो-जो भी पाप-पुण्य करता है, वह उसके भीतर बैठे देवता से छिप नहीं सकता। वह अन्य किसी को धोखा दे सकता है, पर स्वयं को धोखा नहीं दिया जा सकता। आज तक व्यक्ति की यह धारणा बनी हुई है कि उसके पाप-पुण्य का हिसाब आसमान में बैठे हुए किसी भगवान द्वारा रखा जाता है। इसीलिए जब वह पाप करता है तो सोचता है कि जब ऊपर जाएँगे तब निपट लेंगे क्योंकि यहाँ तो कोई देखने वाला नहीं है। पर भगवान कहते हैं कि तुम्हारे स्वयं में विराजित देवता सेतो तुम्हारा कोई भी कृत्य छिपा नहीं है।
एक बार महर्षि नारद आकाश में विचर रहे थे। वे एक आश्रम के पास रुक गये। उनके पीछे जो अन्य देवगण चल रहे थे, वे भी रुक गए। उन्होंने नारद जी से पूछा, 'महर्षि ! किस कारण से आप यहाँ रुक गए ?' नारद बोले, 'देखो, इस आश्रम में जो दो व्यक्ति सो रहे हैं, उनमें से एक व्यक्ति भविष्य में बहुत बड़ा तत्त्ववेत्ता, ब्रह्मज्ञानी व आत्मद्रष्टा होगा।' नारद के साथ देवगणों ने उनको अपने प्रणाम समर्पित किए और आगे बढ़ गए।
उस आश्रम में बैठे गुरु ने नारद की सारी बातें सुन ली थीं, पर वे यह नहीं समझ पाए कि नारद ने उनके किस शिष्य के संबंध में यह संकेत दिया है। गुरु ने सोचा कि इस बात की कसौटी कसनी चाहिए कि कौन-सा शिष्य योग्य है ? गुरु ने दोनों ही शिष्यों को बुलाकर उन्हें एक-एक कबूतर दिया और आदेश दिया कि वे कबूतर की गर्दन ऐसी जगह जाकर मरोड़ दें, जहाँ उन्हें ऐसा करते हुए कोई देख न सके।
दूसरा शिष्य भी आश्रम से बहुत दूर जंगल में चला गया और एक पेड़ के नीचे खड़ा हो गया। उसने देखा कि दूर-दूर तक कोई व्यक्ति नजर नहीं आ रहा है। जैसे ही उसने कबूतर की गर्दन पकड़ी, तभी उसे ऐसा लगा कि अरे ! यहाँ तो यह पेड़, इसके पत्ते और इस पर बैठे पक्षी मुझे कबूतर की गर्दन को मरोड़ते हुए देख रहे
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