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हम ही हों हमारे मित्र
में विराजित देवता से मुखातिब होगा , वह अवश्य ही उस प्रभु के साथ प्रत्यक्ष साक्षात्कार कर पाएगा। मंदिर के देवता को तो शायद तुम प्रकाश में भी न पहचान पाओ, पर उस देवता को जो तुम्हारे अन्तरघट में विराजित है, तुम अंधेरे में भी पहचान सकते हो। ___ आदमी अपने भीतर के देवता को मूल्य नहीं दे पाता, वह अन्य किसी देवता को मूल्य देता है। भीतर के देवता द्वारा बाह्य जगत के साथ संबंध एवं तादात्म्य स्थापित करने को ही भगवान ने बहिरात्मा की स्थिति कहा है। जब भीतर का देवता या चेतना, बाह्य जगत से अपने संबंध-विच्छेद कर स्वयं में ही स्थित और प्रतिष्ठित हो जाती है तो यह व्यक्ति की अंतर्यात्रा या अंतरात्मा की स्थिति है। जब अंतरात्मा एवं बहिरात्मा का द्वैत्व समाप्त हो जाता है, बाहर, बाहर नहीं रहता, भीतर, भीतर नहीं रहता, तब सब द्वन्द्व समाप्त हो जाते हैं। उस स्थिति में जो फूल खिलता है, उसका नाम ही परमात्मा है।
मनुष्य के अंतरघट में विराजित उस देवता के ही तीन नाम हैं। बहिरात्मा, अंतरात्मा और परमात्मा। 'अंतरात्मा' हो चाहे 'बहिरात्मा' या ‘परमात्मा' तीनों ही अवस्था में आत्म-तत्त्व तो विद्यमान ही है।
महावीर के लिए जितना मूल्य मनुष्य का है, उतना ही महत्त्व उसके अंतरघट में विराजित देवता का है । महावीर के दर्शन से यदि आत्म-तत्त्व को अलग कर दिया जाए तो वह अपना अर्थ ही खो देगा। इसी तरह यदि व्यक्ति के जीवन से आत्म-तत्त्व को विलग कर दिया जाए तो शिव रूप वह व्यक्ति मात्र शव भर रह जाएगा। वही तत्त्व तो आत्म-तत्त्व है जिसके संयोग से व्यक्ति चलता है, बोलता है, सुनता है, पढ़ता है, लिखता है। व्यक्ति कहीं भी चला जाए, कुछ भी कर ले, पर वह उस आत्म-तत्त्व से एक क्षण के लिए भी अलग नहीं हो सकता । ___ अगर कोई व्यक्ति आत्मा को इस दुनिया में प्रत्यक्ष साबित करना चाहे तो मैं उसे एक सुझाव दूंगा कि वह दो गुलदस्ते ले, जहाँ एक गुलदस्ते में रखे गये फूल कृत्रिम भले ही हों किन्तु अपने रंग-रूप, खुशबू, आकार और सुंदरता में बिल्कुल असली फूलों की तरह हों। वहीं दूसरे गुलदस्ते में प्राकृतिक फूल हों। दोनों ही गुलदस्तों के फूल देखने में हमें समान लग सकते हैं, पर पहले गुलदस्ते में फूलों का ह्रास या विकास नहीं होगा, जबकि दूसरे गुलदस्ते में फूल सजीव हैं, उनमें प्राण हैं, इसलिए वे खिलेंगे तो मुरझाएँगे भी।
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