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हम ही हों हमारे मित्र
मेरे प्रिय आत्मन् !
मनुष्य का सत्य सर्वोपरि है। मनुष्य को दरकिनार करके सत्य के स्वरूप को स्थापित और प्रतिष्ठित नहीं किया जा सकता। मनुष्य की इतनी श्रेष्ठता और गरिमा है कि वह स्वयं ही एक मंदिर है। मंदिर माटी का हो सकता है, पर उसमें निवास करने वाला देवता माटी का नहीं हो सकता। काया माटी की हो सकती है, पर उसमें निवास करने वाली चेतना माटी की नहीं हो सकती। हमारी जिंदगी भी रोशन चिराग की तरह है। जिस तरह दीप की ज्योति माटी के दीये में प्रज्वलित होती है, उसी तरह इस माटी की काया में चेतना की ज्योति प्रकाशित होती है।
जिसकी दृष्टि माटी के दीपक पर केन्द्रित है, वह माटी है और जिसकी दृष्टि ज्योति पर केन्द्रित है, उसने न केवल ज्योतिर्मयता हासिल कर ली, वरन् वह स्वयं ज्योतिर्मय हो गया । जिसने अपनी दृष्टि मृण्मय पर केन्द्रित की, वह स्वयं मृण्मय हो गया और जिसने अपनी दृष्टि चेतना के प्रकाश पर केन्द्रित की, वह स्वयं चिन्मय हो गया। __ भगवान महावीर उस देवता को मूल्य देना चाहते हैं जो किसी वैकुण्ठ में नहीं, बल्कि हमारे अंतरघट में निवास करता है। किसी स्वर्ग या वैकुण्ठ में रहने वाले देवता की तुम हजारों वर्ष प्रार्थनाएँ या इबादत कर लो तब भी शायद ही उनके प्रत्यक्ष दर्शन कर पाओ, पर जब भी व्यक्ति अपने भीतर में उतरकर, अन्तर-हृदय
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