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जागे सो महावीर
है - भाव-विरक्ति । जो भाव से विरक्त है, वह वीतशोक है। भावों में ही संसार है और भावों में ही संन्यास । भावनात्मक समभाव ही राग है; भावनात्मक वैमनस्य ही द्वेष है। जो हर भाव से उपरत है, वह साक्षी है । मुक्ति का यही एक मात्र सनातन मार्ग है - साक्षीभाव साधक की साधना का मूल है । यह साक्षीभाव मोक्ष का मेरुदंड है। साक्षीभाव अध्यात्म का आधार स्तंभ है। वह उसका प्रथम और अंतिम साधन है । साक्षी शोक नहीं करता । साक्षी निर्लिप्त होता है, निरपेक्ष होता है । अपेक्षा और लिप्तता ही हमें औरों से बाँधती हैं। यदि अपेक्षा उपेक्षित हो जाए तो उत्तेजना और आक्रोश हम पर हावी हो जाते हैं । महान् लोग दूसरों से अपेक्षा नहीं रखते । वे अपनी अपेक्षा अपने आपसे ही रखते है ।
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साक्षी सहज रहता है, हर हाल में मस्त । मेरा एक अकेला संदेश है 'मस्त रहो, हर हाल में मस्त ।' कोई मरे तो भी मस्त रहो ; कोई जन्मे तब भी मस्त रहो । लाभ में भी मस्त रहो और हानि में भी मस्त रहो । अभिनन्दन हो तो भी मस्त रहो; आलोचना हो तब भी मस्ती को खंडित मत होने दो। हर हाल में मस्ती - साक्षित्व को साधने का पहला गुरुमंत्र है।
तुम परिवार में रहो, पर साक्षी बनकर । व्यवसाय में प्रवृत्ति हो, पर साक्षित्व का बोध बरकरार रहे। ट्रेन - बस में सफर हो, तब भी साक्षित्व को साथ लेकर । सब्ज़ी सुधारो, फल सुधारो, पर साक्षित्व की दशा हर पल, हर जगह, हर कार्य में साथ रहे । भाव-विरक्ति का मतलब साक्षित्व है । साक्षित्व का अर्थ भाव-विरक्ति है । साक्षी हर परिस्थिति को नियति का एक संयोग भर मानता है । उसे हर स्थिति होनी और होनहार नजर आती है । वह घमंड भी नहीं करता और खेद भी नहीं । वह हर हाल में सहज रहता है, शान्त रहता है, सौम्य रहता है।
आसक्त व्यक्ति साक्षी के बिलकुल विपरीत है। उसे लगता है कि हर परिस्थिति मेरे कारण है। सब कुछ मेरे किये ही हो रहा है। मैं और मेरे का भाव आसक्ति का परिणाम है। ऐसा व्यक्ति बीवी-बच्चे, जमीन-जायदाद के प्रति ही मेरे-मेरे का भाव नहीं रखेगा अपितु उसके घर के बाहर हवा से उड़कर आई धूल को भी कहेगा- 'मेरी धूल ।'
ऐसा हुआ। एक व्यक्ति बस अड्डे पहुँचा । उसे कहीं जाना था। बस रवाना होने में देर थी अत: उसने आगे की सीट पर रूमाल बिछाया और खुद नीचे उतर गया। पन्द्रह मिनट बाद बस रवाना होने लगी । व्यक्ति दौड़ आया और बस में
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