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________________ साधना राग की, प्रार्थना वीतराग की है, लेकिन वह मात्र इस डर से बाहर नहीं निकलता कि यदि बाहर निकलूँ और वहाँ कीचड़ ही मिला तो मेरा क्या हाल होगा? इस भय से वह कीचड़ का कीड़ा कीचड़ में ही सता जाता है। ___ कमल और कीड़ा, दोनों ही कीचड़ में पैदा होते हैं। कीड़ा कीचड़ में ही धंसता जाता है, जबकि कमल उस कीचड़ से ऊपर उठ जाता है। हम सब भी तो कीचड़ से ही पैदा हुए हैं। हमारा यह शरीर हमें माता-पिता के रक्त, वीर्य, अस्थि, मज्जा से ही तो मिला है। पर एक व्यक्ति कीचड़ में पैदा होकर कीचड़ में ही प्रवृत्त होता जाता है और दूसरा वह है जो भले ही किसी कीचड़ में पैदा हुआ है, पर वह कीचड़ को कीचड़ समझकर उसका त्याग कर देता है। धन्य हैं वे महापुरुष जो स्वयं को संसार के कीचड़ से कमल की तरह निर्लिप्त रखते हैं। निर्लिप्त-निर्मल आत्माओं के लिए ही भगवान का अगला सूत्र है : भावे विरत्तो मणुओ, विसोगो, एएण दुक्खोह परंपरेण। न लिप्पई भवमज्झे वि संतो, जलेण वा पोक्खरिणी पलासं ।। यह बहुत ही कीमिया सूत्र है। भगवान कहते हैं कि भाव से विरक्त मनुष्य शोक-मुक्त बन जाता है। जैसे कमलिनी का पत्र जल में लिप्त नहीं होता, वैसे ही भाव-विरक्त पुरुष संसार में रहकर भी अनेक दु:खों से लिप्त नहीं होता। जो भाव से विरक्त है, वह वीतशोक है। उसे किसी भी प्रकार का दुःख नहीं है। जो भाव में अनुरक्त है, उसके लिए सब तरह के दुःख हैं। पति के बीमार हो जाने पर पत्नी दुःखी होती हैं, क्योंकि उसके भावों में अनुराग है। बेटे की गलती पर पिता चाँटा जड़ देता है क्योंकि भावों में अनुरक्ति है। जन्म पर खुशी और मृत्यु पर पीड़ा इसीलिए होती है कि उनमें अनुरक्ति है। पड़ोस में मृत्यु हो जाए तो व्यक्ति सोचता है कि जल्दी से चाय-नाश्ता कर लूँ क्योंकि श्मशानयात्रा में जाना है। यदि घर में मृत्यु हो जाए तो चाय नहीं भाती, अन्तर में पीड़ा होती है, दु:ख होता है। मृत्यु तो दोनों ही जगह समान है, जगह में मात्र पाँच-दस गज का अन्तर है, पर पड़ौस के साथ व्यक्ति के रागात्मक सम्बन्ध नहीं जुड़े हुए हैं, इसलिए वह मृत्यु उसे दुःख नहीं देती, जबकि परिवार में अनुरक्ति होने पर किसी की भी मृत्यु हमारे शोक का कारण बन जाती है। नानक कहते हैं : 'नानक दुखिया सब संसार।' सारा संसार दुःखमय है। दुःखी होना जीवन का अनिवार्य पहलू है, पर दुःख व शोक से मुक्त होने का मार्ग Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003888
Book TitleJage So Mahavir
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2012
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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