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कर्म, आखिर कैसे करें ?
दुःख को देख सकता है, पर दुख का अनुभव तो कर्ता को अकेले ही करना पड़ता है। उन दुःखों में कोई भागीदारी नहीं कर सकता ।
हजारों वर्षों पूर्व जब वाल्मीकि से यह प्रश्न पूछा गया था कि तुम यह चोरीडाका किसके लिए करते हो? तो उसने जवाब दिया, 'यह सब मैं अपने परिवार के लिए करता हूँ ।' जब पूछा गया कि तुम जाकर यह तो पूछ आओ कि इन चोरी, डाका और हिंसाजनित पापों से उत्पन्न कर्म उदय में आएँगे तो तुम्हारे सहभागी कौन-कौन बनेंगे?
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वाल्मीकि पूछने जाते हैं तो सभी हाथ खड़े कर देते हैं। हाँ, सुख में सहभागी सब बन जाएँगे, पर दुःख का वेदन तो इस जीव को अकेले ही करना पड़ेगा। बच्चे तब तक अपने हैं जब तक कि उनके पंख न लग जाएँ । आत्मनिर्भर होते ही वे साथ छोड़ देते हैं। पत्नी का साथ घर की देहरी तक है और मित्र एवं बान्धवों का साथ श्मशान तक । जीव को तो अकेले ही जाना पड़ता है। यदि उसके कोई मित्र या शत्रु हैं जो उसका साथ नहीं छोड़ते तो वे उसके द्वारा बांधे गये कर्म ही हैं । जो व्यक्ति अपने कर्मों के प्रति सजग रहेगा, वह शुभ और शुद्ध कर्मों का स्वामी बनेगा। जो इनके प्रति असावधान रहेगा, उसका जीवन अन्धेरे में ही रहेगा। वह स्वयं अंधा है और जीवन को अंधों के कुएँ में डाल रहा है। उसका साथ देने वाले भी अन्धे हैं । अंधा तो कुएँ में गिरता ही है, किन्तु उसके साथ वह भी कुएँ में गिरता है, जिसे अंधा ठेल रहा है, जिसका मार्गदर्शक अंधा है, वह केवल भेड़ को प्रोत्साहन दे सकता है ।
हम सब लोग इस बात को हृदय में उतर ही जाने दें कि यहाँ कोई किसी का साथ नहीं निभाता । जब तक स्वार्थ सधता रहे, तभी तक हम एक-दूसरे को निभाते हैं। जैसे ही स्वार्थ बाधित हुआ, हम यहाँ दो पल लगाते हैं किसी से भी पल्ला झड़काने में । संसार तो किसी नाट्य- रंगमंच की तरह है। यहाँ सभी मंच पर आते हैं, अपना-अपना संवाद सुनाते हैं और पर्दे की ओट में ओझल हो जाते हैं। ध्यान रखो, कर्म केवल कर्त्ता का अनुगामी होता है । दुःख अकेले भोगना पड़ता है । संगी-साथी हमारे दुःख के साक्षी भर हो सकते हैं, थोड़ी-बहुत दौड़-भाग कर सकते हैं। शेष तो व्यक्ति स्वयं ही अपना कर्त्ता - भोक्ता है। व्यक्ति स्वयं ही स्वयं का उत्तरदायी है।
सोच-सोचकर सोचो कि अपने साथ क्या लाए थे? साथ क्या ले जाओगे? किसको साथ लाए थे, किसको साथ ले जाओगे? जब शरीर छोड़ोगे तो एक सुई
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